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भारी ही पड़ती है दो नाव की सवारी, यूपी में हाल-ए-कांग्रेस देखिए

25/02/2024
10:08
भारी ही पड़ती है दो नाव की सवारी, यूपी में हाल-ए-कांग्रेस देखिए
भारी ही पड़ती है दो नाव की सवारी, यूपी में हाल-ए-कांग्रेस देखिए
Congress Latest News: वैसे तो शाहबानो मामले में कांग्रेस ने डैमेज कंट्रोल कर लिया था. लेकिन दो नावों पर सवार होना उसे भारी पड़ गया. यहां जब हम दो नाव की बात कर रहे हैं तो आप का सोचना लाजिमी है कि वो कौन सा प्रसंग था जिसकी वजह से कांग्रेस उस वोटबैंक को साधने में नाकाम हो रही जो छिटक कर किसी और के पाले में चला गया. इसके लिए आप को इतिहास में चलना होगा. 1980 और 1990 के बीच राम मंदिर आंदोलन राजनीतिक तौर पर जोर पकड़ने लगा था. हिंदू संगठन भी अपने अपने स्तर पर आंदोलन को धार दे रहे थे. इन सबके बीच जब भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर को राजनीतिक एजेंडा बनाया तो देश सबसे बड़ी पुरानी पार्टी के रणनीतिकारों को लगने लगा कि कुछ ठोस फैसले करने पड़ेंगे ताकि बीजेपी को किसी तरह का फायदा ना मिल सके. अगर आप 1980 से लेकर 1990 के कालखंड को देखें तो जमीनी तौर पर बीजेपी की पकड़ इतनी ही थी कि संसद में महज उसके 2 सदस्य थे. पार्टी को सक्रिय कार्यकर्ता तक नहीं मिलते थे. चुनाव के दौरान हाल ये होता था कि अगर किसी सड़क पर कांग्रेस की दो प्रचार गाड़ियां दिखती थीं तो बीजेपी के इक्के दुक्के वाहन नजर आते थे. हालांकि कांग्रेस और बीजेपी को यह समझ में आने लगा था कि यह कालखंड आगे की राजनीति के लिए कितना महत्वपूर्ण साबित होने वाला है. सबको खुश करने की कवायद पड़ी भारी इन सबके बीच कांग्रेस ने दो बड़े फैसले किए. पहला ये कि शाहबानो प्रकरण में तत्कालीन केंद्र सरकार ने सु्प्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर मुस्लिम समाज के मर्दों को संदेश दिया कि वो उनके साथ है. वहीं राम मंदिर का ताला खुलवा दिया. कांग्रेस को लगा कि उसके ये दोनों फैसले कारगर साबित होंगे. लेकिन भ्रष्टाचार के मामलों से कांग्रेस इतनी दब चुकी थी कि 1989 का फैसला उसके खिलाफ गया. वी पी सिंह की अगुवाई में गैर कांग्रेसी सरकार सत्ता के केंद्र में थी. हालांकि उनकी सरकार लंबे समय तक जिंदा नहीं रह सकी. वी पी सिंह की जगह चंद्रशेखर सिंह सत्ता में आए जिसे कांग्रेस का समर्थन हासिल था. हालांकि कांग्रेस को जब यह लगने लगा कि उसके खुद के अस्तित्व पर खतरा हो सकता है तो जासूसी कांड का राग अलाप चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापस ले लिया. लेकिन इन सबके बीच प्रादेशिक स्तर पर सियासत खुद के लिए अलग तरह से स्क्रिप्ट लिख रही थी. कांग्रेस का मध्यम मार्ग ही सबसे बड़ा दुश्मन अगर बात यूपी की करें तो 1990 में सोमनाथ यात्रा के बाद अयोध्या राम मंदिर का मुद्दा गरमा गया था, सूबे में मुलायम सिंह की सरकार थी. उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर कारसेवकों पर गोली चलवा दी थी जिसके बाद माहौल बदला. इस पूरे प्रकरण से दो दलों को सियासी तौर पर बड़ा फायदा मिला. मुस्लिम समाज को मुलायम सिंह मसीहा के तौर पर नजर आने लगे थे. वहीं हिंदू समाज को लगने लगा था कि देश की सांस्कृतिक विरासत की बात तो बीजेपी ही करती है ऐसी सूरत में कांग्रेस के हाथ से ये दोनों धीरे धीरे निकलने लगा था. रही सही कसर तब पूरी हुई जब 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. बदले में नरसिंहा राव की सरकार ने यूपी समेत बीजेपी शासित चार राज्यों की सरकार को गिरा दिया. क्या कहते हैं जानकार राजनीति के जानकार बताते हैं कि यब बात तो सच है कि बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद कांग्रेस केंद्र की सरकार पर काबिज रही. लेकिन देश के सबसे बड़े सूबों में से एक यूपी में कांग्रेस जमीनी तौर पर खत्म हो गई. दरअसल कांग्रेस जिस वोटबैंक के दम पर सत्ता पर काबिज होती थी वो अब अलग दलों के पाले में चला गया. दलित, अल्पसंख्यक और अगड़ा समाज, कांग्रेस को वोटबैंक हुआ करता था. लेकिन अब दलित समाज बीसपी का हिस्सा बना, अल्पसंख्यक समाज समाजवादी पार्टी के साथ चला गया और अगड़ों ने बीजेपी में खुद के लिए राह तलाश ली. दरअसल कांग्रेस जिस मध्यम मार्ग का राग अलाप कर सत्ता पर काबिज हुआ करती थी वो हथियार उलटा पड़ने लगा था. लोग पूछा करते थे कि आखिर कांग्रेस ये तो बताए कि बड़े बड़े मुद्दे पर उसका स्टैंड क्या है. सबको खुश करने की नीति से काम नहीं चलने वाला. आप इसे यूं भी समझ सकते हैं कि कभी कभी आप खुद के चरित्र को इस तरह से गढ़ लेते हैं कि उससे बाहर निकल नहीं पाते. यही वजह है कि कांग्रेस सांसद जब चुनावों के आते ही मंदिरों के चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं तो लोगों को यह लगता है कि महज वोटों की कवायद में कांग्रेस ढोंग कर रही है.

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