इसलिए नीतीश हैं सबके, पढ़ें- बीजेपी समर्थन की इनसाइड स्टोरी

 

Bihar Politics: संभावनाओं का ही खेल सियासत है. अगर ऐसा ना होता तो बिहार के सीएम नीतीश कुमार एक बार फिर सीएम ना बनते. अब राजनीतिक दलों के लिए बयानों के खास अर्थ नहीं हैं, अगर ऐसा होता तो बिहार बीजेपी के अध्यक्ष सम्राट चौधरी, नीतीश कुमार के डिप्टी ना बनते. आपको याद ही होगा कि किस तरह से सम्राट चौधरी ने कहा था कि नीतीश के ना हटने तक मुरैठा नहीं खोलेंगे.

नीतीश के बयान को समझिए

नीतीश कुमार- बीजेपी के एक साथ आने की इनसाइड स्टोरी बताने से पहले आप नीतीश कुमार के दो बयान को समझिए. एक जगह वो कहते हैं, भई हम लोगों का तो पुराना संबंध है. वो तो बीच में कहीं चला गया. इसके बाद वो कहते हैं कि अब कहीं नहीं जाउंगा. इन दो बयानों के जरिए नीतीश ने अपनी बात रख दी कि वो जो भी कर रहे हैं बिहार के लिए है. उन्हें जब बिहार के लिए, बिहार के लोगों के लिए जो उचित लगता है उसके मुताबिक आगे का रास्ता तय करते हैं. हालांकि बीजेपी ने साथ आने का फैसला क्यों किया.

लोकसभा चुनाव है करीब

आम चुनाव 2024 के बेहद करीब नीतीश कुमार ने एनडीए का हिस्सा बनने का फैसला किया. जबकि हम सब जानते हैं कि नो इंडिया गठबंधन के सूत्रधार थे. नीतीश के एनडीए खेमे में आने का अर्थ साफ है कि इंडिया कमजोर नजर आएगा. बीजेपी के नेता चुनावी प्रचार में इसे जोरशोर से उछाल सकते हैं कि कांग्रेस जब अपने लोगों को सहेज कर नहीं रख पायी तो जनता के बारे में क्या सोचेगी. बीजेपी के रणनीतिकारों को लगता है कि नीतीश के साथ आने से ना सिर्फ लोकसभा चुनाव में फायदा मिलेगा बल्कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में वो बेहतर प्रदर्शम करने में कामयाब होगी. यही नहीं चाहे पीएम मोदी हों या सीएम नीतीश दोनों में बड़ी समानता यह है कि वो परिवारवाद के खिलाफ मुखर रहे हैं.

बिहार का जातीय समीकरण

बिहार में OBC, 27.12 फीसद, जबकि अत्यंत पिछड़ी जाति 36.01 प्रतिशत हैं. इसके अलावा एससी आबादी 19.65 प्रतिशत और एसटी 1.6 प्रतिशत हैं. जनरल कास्ट के लोग 15.5 प्रतिशत हैं. बिहार में ईबीसी शुरू से नीतीश का पारंपरिक वोटर रहा है. अब यह वोटबैंक भाजपा को फायदा पहुंचाएगा. साफ है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बावजूद एनडीए का खेमा शायद बिहार को लेकर उतना कांफिडेंट नहीं था.

यहां बेहतर प्रदर्शन जरूरी

बीजेपी के नेता इस बात को समझ रहे हैं कि तीसरी बार केंद्र की सत्ता में आने के लिए हिंदीभाषी राज्यों में ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करनी होंगी. पिछले लोकसभा चुनाव में जेडीयू+बीजेपी+एलजेपी ने मिलकर 40 में से 39 सीटें जीती थीं. बीजेपी को 17 और नीतीश की पार्टी को 16 सीटें मिली थीं. एलजेपी ने 6 सीटें जीती थीं. कांग्रेस को एक और आरजेडी को 0 सीटें मिली थीं. जेडीयू के उस पार रहते भाजपा के लिए इतनी सीटें हासिल करना चुनौती थी.