हिंदी फिल्मों से क्यों गायब हुईं किसान संघर्ष की कहानियां? क्षेत्रीय सिनेमा से सीख ले सकता है बॉलीवुड

 

Farmers in Bollywood Cinema: पिछले पच्चीस सालों में तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों के अनुसार किसानों की आत्महत्या के दर में हर वर्ष इजाफा होता जा रहा है ऐसे में यह सवाल उठता है कि हमारा हिंदी फिल्म उद्योग किसानों के दर्द, हालात, और परेशानियों से कैसे मुंह मोड़े बैठा हुआ है? देश के जिस प्रदेश की राजधानी में यह उद्योग फल-फूल रहा है। खुद उसी प्रदेश के किसान सबसे अधिक आत्महत्या कर रहे हैं। फिर भी क्या वजह है कि हिंदी फिल्मों के परिदृश्य से देश की एक बहुत बड़ी आबादी एकदम से गायब ‘हो चुकी है’।

दो बीघा जमीन की वो कहानी

‘हो चुकी है’ इसलिए की यही वह उद्योग है जहां से बिमल रॉय की किसानों के जीवन संघर्ष पर आधारित कालजयी रचना ‘दो बीघा जमीन’ (1953) सिल्वर स्क्रीन पर उतरी थी और शंभू के किरदार में बलराज साहनी ने जान फूंक दी थी। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह एक तरफ महाजनी सभ्यता और दूसरी तरफ विकास रूपी दैत्य के हाथों किसान अपनी जमीन से हाथ धो बैठते हैं और गरीबी के दलदल में फंसते चले जाते हैं। इससे कुछ ही वर्ष बाद महबूब खान की फिल्म आई मदर इंडिया (1957 ) जिसने किसानों के सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति जनित कठिनाइयों और मुश्किलों के ताने-बाने को बहुत ही बारीकी से बुना और सिनेमा के परदे पर सजीव किया था।

1967 में फिल्म आई ‘उपकार’

इसी कड़ी में उपकार (1967) फिल्म भी आती है जो तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ नारे से प्रेरित थी और खेती-किसानी से लेकर देशभक्ति के भावनाओं से ओत-प्रोत थी। हालांकि उपकार जैसी फिल्में किसानों की वास्तविक परिस्थिति दिखाने के बजाय आदर्शवादी अधिक थीं। इसके विपरीत जब समानांतर सिनेमा ने मंथन (1976) जैसी फिल्म दी तो एक उम्मीद सी जगी कि किसान फिर से हिंदी फिल्मों में दिखेंगे, हालांकि ऐसा हुआ नहीं। मंथन बहुत से मायनों में मील का पत्थर है। यह फिल्म किसानों के शोषण, उनकी जिजीविषा और इच्छाशक्ति को दर्शाने में पूरी तरह सफल रही।

बाद के दौर में जबकि एनआर ई और मध्य वर्ग पूरी तरह से फिल्मों की विषय वस्तु पर हावी था, गाहे बगाहे लगान (2001) जैसी इक्का-दुक्का फिल्में आईं पर उनका भी मुख्य कथानक किसान और उनकी समस्याएं नहीं थीं। कहा जा सकता है कि किसान एकदम से ही मुख्यधारा की फिल्मों से विलुप्त ही हो गए। देखा जाए तो इसके पीछे कुछ ऐसे कारण हैं जो हिंदी फिल्म उद्योग में आये अंदरूनी बदलावों से उपजे और कुछ ऐसे जो बदलते हुए राजनितिक, सामाजिक सरोकारों और आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप।

किसानी की पृष्ठभूमि पर फिल्मों में गदर

आजादी के तुरंत बाद की फिल्मों में तो किसान है लेकिन जैसे-जैसे विकासवाद की लहर चली, उद्योग-धंधे फले-फूले, किसानों की जमीन उनके हाथ से निकलती गई, सड़क और कारखाने वहां बनते गए और किसान रोजी-रोटी की जुगाड़ में शहर का रुख करते गए, और कारखानों में मजदूर बनते गए। नतीजतन फिल्मों से गांव और किसान दोनों ही गायब होने लगे और शहर-मजदूर आधारित फिल्में सिनेमा के परदे पर गदर मचाने लगीं। समय बदला सरकार की आर्थिक नीतियां बदलीं, आईटी बूम आया और ना ही मजदूर, ना ही किसान बल्कि एनआरआई मुख्यधारा की फिल्मों का नायक बना। बीच-बीच में पीपली लाइव (2010) सरीखी फिल्में आईं तो सही, लेकिन इनका योगदान बिल्कुल ऐसा ही रहा जैसे सहरा में बूंद भर पानी।

फिल्म उद्योग भी इस दौरान बहुत से बदलावों का साक्षी रहा। पहले स्टूडियो फिल्म निर्माण के केंद्र में रहते थे। कमाई का जरिया होने के साथ-साथ कला पक्ष और भाव पक्ष का भी ध्यान रखा जाता था। सामाजिक सरोकार भी ध्यान में रखे जाते थे तभी अछूत कन्या और दो बीघा जमीन जैसी फिल्में बन पाती थीं। धीरे-धीरे स्टूडियो की परंपरा खत्म होती गई और स्वतंत्र निर्माताओं और फिनांसियर की फिल्म उद्योग में आमद बढ़ती गई। बॉक्स ऑफिस और व्यावसायिक पक्ष हावी होते गए और अधिक से अधिक कमाई करने के होड़ में वही विषय हावी हो गए जो जनता देखना पसंद करती थी। और जब निजीकरण और वैश्वीकरण के दौर में विदेशी निवेश बढ़ा, तो स्टूडियो और बड़े प्रोडक्शन कंपनी फिर से से हावी हो गए।

फिल्मों के बिजनेस मॉडल से किसान गायब

इनके बिजनेस मॉडल में तो किसान कहीं फिट ही नहीं होता। इनके दर्शकों में किसान है ही नहीं। जिस युवा पीढ़ी के लिए ये फिल्में बनाते हैं। खेती किसानी से उनका क्या लेना-देना? तो ऐसी फिल्मों में निवेश ही क्यों करना! जाहिर है ऐसे में किसानों को हिंदी फिल्म उद्योग के परिदृश्य से गायब होना ही था। हालांकि क्षेत्रीय फिल्मों में किसान हमेशा से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा है। खासकर तमिल, कन्नड़, तेलुगु और मराठी फिल्मों में वह बहुत सशक्त रूप में रहा है और ऐसी फिल्मों ने राष्ट्रीय पुरस्कार तक जीते हैं जैसे कि मराठी फिल्म रिंगन (2015)।

उम्मीद है की हिंदी फिल्म उद्योग क्षेत्रीय फिल्मों से सबक लेगा और फिर से किसानों के मुद्दों और उनसे जुड़े सामाजिक सरोकारों पर फिल्में बनाना शुरू करेगा। और अंत में एक समाज के रूप में क्या ये हमारी विफलता नहीं कि हमने ऐसी परिस्थिति आने दी की हिंदी फिल्म उद्योग किसानों को अपने परिदृश्य से गायब कर दे, उनकी सामाजिक सांस्कृतिक संवेदनाओं को नगण्य माने और उनके जीवन के संघर्षों, और देश तथा समाज के विकास में उनके योगदान को रेखांकित ना कर पाए?