चिराग पर क्यों मेहरबान हो गई बीजेपी, पशुपति पारस मलते रह गए हाथ, यह है खास वजह

 

Lok Sabha Chunav 2024:  सियासी कयासों पर विराम लगाते हुए एनडीए ने बिहार की सभी 40 लोकसभा सीटों पर सहमति बना ली. बीजेपी, 17, जेडीयू 16, चिराग पासवान की पार्टी 5, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी 1 और जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तान अवाम मोर्चा एक एक सीट पर चुनाव लड़ने जा रही है.इन सबके बीच यहां हम बात चाचा-भतीजे की करेंगे यानी की चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति पारस की बात होगी. टिकट बंटवारे को लेकर पशुपति पारस ने मोर्चा खोल रखा था.उनके सुर में तल्खी थी. तल्खी अब भी है. वो 6 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते थे. लेकिन सीटों के बंटवारे को अगर आप ध्यान से देखें तो उनके खाते में एक भी सीट नहीं आई है.

पशुपति पारस पर दांव क्यों नहीं

अब सवाल यह है कि आखिर बीजेपी ने पशुपति पारस को क्या संदेश दिया है. क्या बीजेपी को भरोसा है कि पशुपति पारस से जितना राजनीतिक फायदा मिल सकता था. उतना फायदा मिल चुका है.सियासत में एक जैसी स्थिति हमेशा नहीं रहती. सियासत में वो ही दल या शख्स लंबी पारी खेलेगा जो जमीनी हकीकत को समझता है.

यहां पर आपके मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि चिराग पासवान जो खुद को पीएम मोदी का हनुमान बताते थे उन्हें बीजेपी ने केंद्र में मौका क्यों नहीं दिया था. चिराग पासवान की जगह उनके चाचा को तवज्जो क्यों दी. इस सवाल का जवाब सियासत के जानकार बड़े ही सधे अंदाज में देते हैं. सियासी पंडितों का मानना है कि आज के मौजूदा हालत में बीजेपी की राजनीति को समझना इतना आसान नहीं है. बिहार की राजनीति के मद्देनजर बीजेपी को यह बात समझ में आने लगी थी कि चिराग पासवान का पार्टी के साथ रहने से अधिक फायदे का सौदा अलग रहने में है.

क्या है बीजेपी की रणनीति

बीजेपी के रणनीतिकार इस बात को समझते थे कि जमीनी तौर पर चिराग का आधार पशुपति पारस से अधिक है. अगर चिराग पासवान, नीतीश कुमार की मुखालफत बिना बीजेपी के साथ रह कर करें तो उसका फायदा उन्हें अधिक मिलेगा. बीजेपी की यह रणनीति काम भी कर गई जिसे आप 2020 के नतीजों में देख सकते हैं. नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग पासवान के अंधाधुंध प्रचार का असर यह हुआ कि नीतीश की पार्टी तीसरे नंबर पर आ गई. इसका मतलब यह है कि बीजेपी ने एक तरह से नीतीश कुमार को संदेश दे दिया कि हम पिछलग्गू नहीं हैं.

अब सवाल यह है कि 2024 के आम चुनाव से पहले बीजेपी ने चिराग पासवान के चाचा पशुपति पारस की पार्टी को सीट देना मुनासिब क्यों नहीं समझा. इस संबंध में सियासत के जानकार कहते हैं कि जो जमीन पर प्रभावी है उसकी भविष्य सुनहरा है. अगर चिराग और उनके चाचा में तुलना करें तो राम विलास पासवान की राजनीति के स्वाभाविक दावेदार चिराग अधिक हैं. बीजेपी के रणनीतिककारों को लगता है कि पशुपति पारस भले ही एनडीए सरकार का हिस्सा हों लेकिन चुनावी राजनीति में जमीन पर चिराग पासवान से उनकी पकड़ कहीं कम है.

मिशन 400 की लड़ाई

बीजेपी की लड़ाई मिशन 370 और मिशन 400 की है. बिहार एक बड़ा राज्य है लिहाजा उसके लिए हर एक सीट पर लड़ाई करो या मरो की है. अब चूंकि बीजेपी ने अपने शब्दकोष से हार शब्द को बाहर का रास्ता दिखा दिया है लिहाजा बीजेपी के लिए हर एक कोशिश का मतलब सिर्फ जीत है. अब इस सियासी लड़ाई में बीजेपी को चिराग की ताकत उनके चाचा पशुपति पारस से कहीं अधिक नजर आ रही है लिहाजा सीटों की अंकगणित में पशुपति पारस के खाते में सिर्फ जीरो आया.