Nitish Kumar: सहबाला कोई हो दूल्हा तो मैं ही रहूंगा, इतिहास-वर्तमान दोनों गवाह

 

Bihar Politics: वैसे तो नीतीश कुमार ही बिहार के सीएम हैं और आगे भी वो सीएम ही रहेंगे. इस एक लाइन में कई सवाल और कई जवाब हैं. ये बात सच है कि महागठबंधन वाली सरकार की अगुवाई कर रहे हैं भले ही उनकी पार्टी के विधायकों की संख्या सहयोगी दल आरजेडी से कम हो. अगर पाला बदल लें तो भी वो सीएम ही बने रहेंगे. इस सूरत में सिर्फ एक बदलाव यही होगा कि घटक दलों के चेहरे बदल जाएंगे. इसका अर्थ यह है कि आरजेडी की जगह बीजेपी, कांग्रेस की जगह कोई और चेहरा,वाम दलों की जगह कोई और. यानी की हर हाल में वो दुल्हा ही बने रहेंगे. अब उनके साथ आगे कोई सहबाला होगा या नहीं वो तो भविष्य के गर्भ में छिपा है लेकिन इतिहास तो यही है कि वो नहीं बदले सहबाला बदलते रहे.

क्या है दूल्हा-सहबाला का माजरा

दूल्हा और सहबाला की अपनी कहानी क्या है. उससे पहले आरजेडी के कद्दावर नेता शिवानंद तिवारी ने एक बयान दिया है. जिस पर आप गौर फरमाइए. वो कहते हैं, ” मैं कभी नहीं सोच सकता कि नीतीश कुमार एनडीए की तरफ लौटेंगे. वो कैसे चाहते हैं कि इतिहास उन्हें किस रूप में याद करे. वो कैसे इस तरह का कोई भी कदम उठा सकते हैं. जब बीजेपी दफ्तर के चपरासी ने कहा था कि उनके लिए दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं. वैसे बता दें कि राजनीति में पार्टियों के दरवाजे सुविधा के हिसाब से खुलते और बंद होते हैं. अब असल मुद्दे पर आते हैं कि दुल्हा का मतलब समझ ही चुके हैं कि कौन है. आखिर सहबाला वाली कहानी क्या है. इसके लिए आपको इतिहास में चलना होगा.

2005 से परिपाटी हुई शुरू

वो साल 2005 था जब नीतीश कुमार की पार्टी ने बीजेपी के साथ मिलकर जनता के दरवाजे पहुंची. बिहार के लोगों को यह समझाने में कामयाब हुए कि लालू यादव की पार्टी ने बेड़ा गर्क कर दिया है. उनकी अपील काम भी कर गई और आरजेडी को जनता ने नकारा जरूर. लेकिन सरकार बनाने के लिए किसी दल को 122 का जादुई आंकड़ा नहीं मिल सका. उसका असर यह हुआ कि राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. साल 2005 में ही अक्टूबर-नवंबर के महीने में दोबारा चुनाव हुआ और जेडीयू-बीजेपी साथ मिलकर सरकार बनाने में कामयाब हुए. नीतीश कुमार सीएम यानी दुल्हा और बीजेपी की तरफ से सुशील कुमार मोदी डिप्टी सीएम यानी सहबाला बने.

लोगों के नाम पर आदर्श की दुहाई

2005 से लेकर 2014 तक जब तक नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा उनके पॉकेट में कैद रही तब तक बीजेपी- जेडीयू की सरकार काम करती रही. लेकिन नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा को पर तब लगे जब राष्ट्रीय फलक पर गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी उभर रहे थे. गोधरा दंगों की बात कर नीतीश कुमार प्रत्यक्ष-परोक्ष बीजेपी के उस चेहरे पर निशाना साध रहे थे जिसे पार्टी ने चुनाव प्रचार कमेटी का प्रमुख बना दिया था. नाम तो वैसे चुनाव प्रचार कमेटी था. लेकिन नीतीश कुमार उसके मतलब को समझ रहे थे और 2014 में बीजेपी से नाता खत्म कर लिया.

अब फिर मन डोला

सियासत की डगर पर उनका कारवां बढ़ता रहा. साल 2015 का आया. उन्होंने एक ऐसे दल से समझौता किया जिसे वो बिहार की बर्बादी के लिए जिम्मेदार बताते थे. जिसका मतलब उनकी नजर में जंगलराज होता. सत्ता में बने रहने के लिए आदर्शों को किनारे लगा दिया. 2015 का नतीजा उनके मनमुताबिक रहा. 178 सीटों के साथ एक बार फिर सरकार बनाने में कामयाब हुए. यानी एक बार दुल्हा बन गए. हालांकि सहबाला का चेहरा बदल चुका था. लेकिन सूरत और सीरत आसानी से अपनी पहचान कहां बदलती. आरजेडी ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था जो नीतीश कुमार के लिए भारी पड़ रही थी. उन्होंने एक बार फिर तर्कशास्त्र की मदद ले लालू यादव की पार्टी से किनारा कर लिया. एक बार फिर बीजेपी से मिल कर सरकार बनाई जो 2020 तक चली.

2020 के चुनाव में बीजेपी और जेडीयू एक साथ मिलकर चुनाव लड़े और जो नतीजा सामने आया नीतीश कुमार के लिए निराशाजनक रहा.बड़े भाई की भूमिका से वो अब छोटे भाई की भूमिका में आ चुके थे. लेकिन बीजेपी ने बड़े भाई का सम्मान करते हुए नीतीश की सीएम बनाने का प्रस्ताव दिया जबकि सहायक की भूमिका में तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी का चयन किया. यानी कि एक बार फिर नीतीश कुमार दुल्हे की भूमिका में थे. यह बात अलग है कि नीतीश कुमार को बीजेपी की नीति कुछ समय के बाद नागवार गुजरने लगी और वो फिर विकल्प ढूंढने लगे. विकल्प के तौर लालू यादव की पार्टी के अलावा कोई और दल भी नहीं था. लिहाजा विचारधारा को किनारे कर या सामाजिक न्याय को धार देने की बात कह एक बार फिर उन्होंने पाला बदला. नई सरकार बनी. नया सहबाला आया लेकिन दुल्हा पहले की तरह कुर्सी पर बरकरार रहा.