लगता है ओबीसी पर राहुल के होमवर्क में हो गई चूक,यहां पढ़ें-पूरा इतिहास
OBC Reservation History: जाति है कि जाती नहीं. भला जब समाज जातियों से मिलकर बना हो तो जाए भी कैसे. भारत की सियासत में जाति का मुद्दा ऐसा है जिसमें पार्टियों को राजनीतिक फसल काटने का मौका नजर आता है. आपको नीतीश कुमार सरकार की जातीय जनगणना तो याद ही होगी. जिस समय बिहार में जातीय जनगणना कराई जा रही थी. उस समय कांग्रेस, नीतीश सरकार के साथ थी. हालांकि नीतीश ने जब पाला बदल लिया तो कांग्रेस से साथ छूट गया. अब नीतीश का कांग्रेस से साथ क्या छूटा कि इंडिया गठबंधन को करारा झटका लगा.बता दें कि ममता बनर्जी पहले ही साथ छोड़ चुकी थीं, और यह सब तब हुआ जब कांग्रेस सांसद राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकले हुए हैं.
न्याय यात्रा के दौर निशाना
न्याय यात्रा में वो मोदी सरकार पर निशाना साधने का एक भी मौका नहीं छोड़ते और वो छोड़ें भी क्यों. आखिर विपक्ष के नेताओं का काम क्या है सरकार की आलोचना तो करनी ही है. आलोचना वाजिब या गैरवाजिब है आप उसका हिस्सा भी बन सकते हैं. लेकिन इनकार नहीं कर सकते. राहुल गांधी अपने बयान में कहते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार का यही सामाजिक न्याय है जिसमें केंद्र सरकार में कार्यरत 90 सेक्रेटरी में सिर्फ 3 ओबीसी समाज से हैं. इस बयान के जरिए राहुल गांधी ने जाति का कार्ड चला. यही नहीं वादा भी कर डाला कि सत्ता कांग्रेस के हाथ में दो तो आरक्षण के 50 फीसद कैप को हटा देंगे. देश भर में जातीय जनगणना कराएगी. बात साफ थी कि कांग्रेस ने आरोप लगा दिया कि जो लोग सामाजिक न्याय की बात करते हुए गद्दी पर बैठे हैं वो क्या कर रहे हैं. इस तरह के आरोपों पर लोगों को इंतजार था कि पीएम नरेंद्र मोदी क्या कहने वाले हैं वो मौका बजट सत्र में राष्ट्रपति के वोट ऑफ थैंक्स पर था.और जब बोले तो जमकर बोले.
‘नेहरू तो खिलाफ थे’
पीएम नरेंद्र मोदी ने देश के पहले पीएम जवाहर लाल नेहरू का नाम लिया, वैसे नेहरू जी का नाम वो लेते ही रहते हैं. लेकिन बात आरक्षण की थी. बात ओबीसी समाज की थी. तो उन्होंने कहा कि लगता है कि कांग्रेस के लोगों को यह याद नहीं है कि नेहरू जी ने सरकारी सेवाओं के संबंध में राज्यों के मुख्यमंत्रियों को क्या लिखा था. नेहरू जी मानते थे कि सरकारी सेवाओं में आरक्षण नहीं होना चाहिए क्योंकि इसकी वजह से अक्षम लोगों के आने की संभावना बन जाएगी.अब अगर नेहरू जी ने ऐसा नहीं सोचा होता तो बात कुछ और होती. जिस आरक्षण का राग कांग्रेस अलाप रही है क्या वो नेशनल एडवायजरी काउंसिल को भूल गई जिसकी अगुवाई कौन कर रहा था वो तो सबको पता है. अब जब मोदी ने इस तरह की बात संसद के पटल पर कही तो कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की तरफ से स्वाभाविक तौर पर बयान आना था और वो आया भी. उन्होंने कहा कि पीएम नरेंद्र मोदी जन्म से पिछ़ड़े थोड़े हैं, वो तो सर्टिफिकेटर से पिछड़े हैं और वो भी तब जब गुजरात में बीजेपी की सरकार बनी. अब इस बयान के बाद बीजेपी के उस विधायक पूर्णेश मोदी ने मोर्चा खोला जिनकी वजह से राहुल गांधी की सांसदी चली गई. अब बात जब ओबीसी की हो रही है तो उस इतिहास को समझना भी जरूरी है.
ओबीसी का यह है पूरा इतिहास
वैसे तो ओबीसी टर्म का रिश्ता दक्षिण भारत से हैं. संविधान के लागू होने से पहले इसे डिप्रेस्ड क्लास कहा जाता था. खासतौर से मैसूर राज्य में ऐसे सभी लोग जो गैर ब्राह्मण थे उन्हें ओबीसी माना गया. ऐसा कहा जाता है कि गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के दस्तावेजों का हवाला देते हुए ओबीसी का जिक्र किया था.हालांकि 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने से पहले भारत सरकार इस शब्द का इस्तेमाल आधिकारिक तौर पर नहीं करती थी. हां, एसी-एसटी समाज के बारे में जिक्र होता था. कांग्रेस के नेता जब कहते हैं कि उन्हें ओबीसी समाज की फिक्र है तो गैर कांग्रेसी दल याद दिलाते हैं जरा 1 जनवरी 1979 की उस तारीख को याद करिए कि सरकार किसकी थी. अब ऐसा क्यों कहते हैं, उसके पीछे वजह भी है. 1953 में नेहरू जी की सरकार ने बैकवर्ड क्लास की पहचान के लिए काका कालेलकर कमीशन की स्थापना की थी. इस कमीशन ने दो साल बाद यानी 1955 में रिपोर्ट पेश की. हालांकि समिति की सिफारिशें ठंडे बस्ते में पड़ी रही.
24 साल बाद यानी 1979 में मोरारजी देसाई केंद्र सरकार की अगुवाई कर रहे थे. उनके कार्यकाल में सामाजिक और आर्थिक आधार पर दूसरा आयोग बना जिसकी कमान बी पी मंडल के हाथ में थी और लोग उसे मंडल कमीशन के नाम से जानते थे. आयोग को जिम्मेदारी दी गई कि वो सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़े समाज की पहचान करे. यहां आप को बता दें कि मंडल कमीशन के सामने जातियों के आंकड़ों का स्पष्ट आंकड़ा नहीं था. लिहाजा कमीशन ने 1931 की जनगणना का इस्तेमाल किया. सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ों की पहचान के लिए 11 इंडिकेटर इस्तेमाल में लाये गए. कमीशन ने 3700 से अधिक जातियों की पहचान की और माना कि देश की कुल आबादी में इनकी संख्या 52 फीसद है. इस आधार पर मंडल कमीशन ने 52 फीसद आरक्षण की वकालत की. हालांकि 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक आरक्षण की सीमा 50 फीसद से ऊपर नहीं जा सकती थी. लिहाजा आयोग ने 27 फीसद आरक्षण की सिफारिश किया.
ऐसे शुरू हुआ खेल
अब देखिए यहीं से खेल शुरू होता है. जिस समय मंडल कमीशन का गठन हुआ सरकार जनता पार्टी की थी. लेकिन रिपोर्ट पेशन होने के समय सरकार का चेहरा बदला और इंदिरा गांधी हुकूमत पर काबिज हो चुकी थीं. लेकिन इस रिपोर्ट को ना सिर्फ इंदिरा गांधी बल्कि राजीव गांधी की सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया. लेकिन कहते हैं ना कि राजनीति और सत्ता रेत की तरह है कितनी भी बांधों हाथ से फिसल ही जाती है. कांग्रेस के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ, 1989 में वी पी सिंह ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया यह बात अलग थी कि सरकार चलाने वाले और समर्थन देने वालों के विचार में फासला अधिक था. आप सरल शब्दों में कह सकते हैं कि गठबंधन बेमेल था. अज जब गठबंधन ही बेमेल हो तो उसके टिके रहने की गुंजाइश भी कहां अधिक होती है. वी पी सिंह सरकार ने वहीं फैसला लिया जिसे इंदिरा और राहुल गांधी की सरकार ठंडे बस्ते में डाला था. मंडल कमीशन की रिपोर्ट 7 अगस्त 1990 को जारी की गई और उस समय क्या हुआ देश और दुनिया ने देखा. लेकिन उसका असर यह हुआ कि भारत की राजनीति में लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और रामविलास पासवान ने जगह बना ली.
यहां सवाल यह है कि राहुल गांधी ने क्या एक बार फिर पोलिटिकल मिस्टेक कर दी. यह बात सच है कि जब पीएम मोदी का जन्म हुआ था तो आधिकारिक तौर पर ओबीसी की व्यवस्था थी ही नहीं. उनके जन्म के चालीस साल बाद यानी 1990 में आधिकारिक तौर पर इस शब्द का इस्तेमाल हुआ. यही नहीं कांग्रेस के दावों की पोल बीजेपी के नेता कुछ ऐसे करते हैं, बीजेपी नेता कहते हैं कि सच तो यह है कि पीएम मोदी जिस घांची समाज से आते है उसे तो 1994 में ओबीसी की लिस्ट में शामिल किया गया और कांग्रेस के नेताओं को कम से कम इतना तो याद ही होना चाहिए कि उस समय गुजरात में सरकार किसकी थी.