संविधान में भी यूसीसी का जिक्र तो हंगामा क्यों ? विरोध सिर्फ सियासी तो नहीं

 

Uniform Civil Code:  क्या भारत जैसे बहुधर्मी देश में एक जैसा कानून नहीं होना चाहिए. अगर देश की फाउंडेशन का मूल आधार संविधान हो तो संवैधानिक व्यवस्था को अमल में लाए जाने में विरोध क्यों . पहले आप को बताएंगे कि हम चर्चा किस विषय की करने जा रहे हैं. यहां हम आपको यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता के बारे में बताएंगे. उत्तराखंड की कैबिनेट ने समान नागरिक संहिता बिल को मंजूरी दे दी है. अगर यह बिल विधानसभा ने पारित कर दिया तो उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन जाएगा जहां पर समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ जाएगा.

हम यहां चर्चा इसके इतिहास पर करेंगे, संवैधानिक व्यवस्था की करेंगे. राजनीति की करेंगे. वैसे तो समान नागरिक संहिता पर चर्चा पहले भी होती रही है. लेकिन पिछले साल जून के महीने में मध्य प्रदेश की एक सभा में पीएम नरेंद्र मोदी ने इसका खास तौर पर जिक्र किया. उसके बाद सियासत भी शुरू हुई. विपक्षी दलों ने राग अलापना शुरू किया कि यह तो भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था पर चोट करने जैसा होगा. अब इसी विषय पर संवैधानिक व्यवस्था क्या है उसे समझना होगा.

1840 से भी कनेक्शन

आज की तारीख से करीब 193 साल पहले 1840 में जब इस देश पर ब्रिटिश हुकूमत का शासन था तो यूनिफॉर्म सिविल कोड अपने धुंधले रूप में सामने आया. लेकिन अंग्रेजी सरकार को यह समझ में आ गया कि यहां के लोगों के व्यक्तिगत मसलों में हस्तक्षेप ठीक नहीं होगा. लिहाजा पर्सनल मामले में हिंदुओं. मुस्लिमों की व्यवस्था में छेड़छाड़ नहीं की.

1946 में संविधान सभा में खास जिक्र

धीरे धीरे समय का चक्र आगे बढ़ता रहा और साल 1946 आया. संविधान सभी की बैठक में यह विषय लाया गया कि देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसी व्यवस्था क्यों ना हो. इस विषय पर डॉ बी आर अंबेडकर का विचार स्पष्ट था. वो चाहते थे कि देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता होनी चाहिए. लेकिन संविधान सभा में शामिल कुछ मुस्लिम सदस्यों को ऐतराज था. इस तरह के हालात में बीच का रास्ता निकाला गया.

क्या है संवैधानिक व्यवस्था

संविधान सभा ने समान नागरिक संहिता को अनुच्छेद 44 में  जगह दे दी. बता दें कि अनुच्छेद 44, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का हिस्सा है यानी की राज्य पर यह जिम्मेदारी होगी कि वो इसे लागू करे लेकिन राज्य पर यह बाध्यकारी नहीं होगा. इसका मतलब यह भी है कि कोई भी नागरिक अदालत में इसे लागू करके के संबंध में याचिका नहीं लगा पाएगा. राज्य का जब मन हो वो इस विषय पर कानून बना सकती है.

क्यों हो रहा है विरोध

सवाल यह है कि इस विरोध क्यों हो रहा है. इसके विरोध में आवाज उठाने वाले कहते हैं कि आखिर अनुच्छेद 25 और 29 का क्या होगा. यहां आप को बता दें कि ये दोनों अनुच्छेद मौलिक अधिकार से जुड़े हैं. समान नागरिक संहिता के विरोध करने वाले मौलिक अधिकार के हनन का हवाला देते हैं. हालांकि समर्थक यह कहते हैं कि समान नागरिक संहिता के जरिए उन विभेदकारी व्यवस्था पर लगाम लगाने की कवायद है जो एक ही समाज के नागरिकों को अलग अलग नजरिए से देखते हैं.