Electoral Bond: अंबानी-अडानी क्यों हैं गायब, जानें इलेक्टोरल बांड के सीक्रेट नंबर का तिलस्म

 

Electoral Bond Controversy:लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार इलेक्टोरल बांड के जरिए राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले के नाम सामने आ गए हैं। और SBI द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए डाटा और उसे सार्वजनिक करने के बाद जो खुलासा हुआ है। उसके अनुसार 2019 से 2024 के बीच 1334 कंपनियों और लोगों ने कुल 16518 करोड़ रुपये के बांड खरीदे। इस लिस्ट में कई अरबपतियों और उनकी कंपनियों के नाम सामने आए हैं। जिसमें कुछ नाम नेचुरल हैं तो कुछ बेहद सरप्राइजिंग हैं। लेकिन इस लिस्ट में वो 2 अरबपति और उनकी कंपनियों के नाम शामिल नहीं है, जिसका विपक्ष और बहुत से लोग इंतजार कर रहे थे। जी हां आपने सही समझा, इस लिस्ट में अंबानी परिवार और गौतम अडानी का नाम नहीं है। और न ही उनकी कंपनियां यानी रिलायंस और अडानी ग्रुप का नाम है। ऐसे में सवाल उठता है कि देश के सबसे बड़े अमीरों का नाम इस लिस्ट में क्यों नही है। क्या ये लोग चुनावी चंदा नहीं देते या फिर इनके चंदा देना का तरीका कुछ और है।

चुनावी चंदे का क्या इलेक्टोरल बांड ही तरीका

तो सबसे पहले जानते हैं कि भारत में चुनावी चंदा किस तरह दिया जा सकता है। इलेक्टोरल बांड के अलावा चुनावी चंदा देने के और भी तरीके हैं, जिसे कंपनियां इस्तेमाल कर सकती हैं।

इसमें राजनीतिक दल चेक से चंदा ले सकते हैं, जिसकी जानकारी चुनाव आयोग को देनी होती है. इसके अलावा राजनीतिक दल वेबसाइट के जरिए भी चंदा ले सकती हैं, जिसकी जानकारी उन्हें वेबसाइट पर ही देनी होती है। इसके अलावा 2013 में चुनावी ट्रस्ट की शुरुआत हुई। ये नॉन-प्रॉफिट कंपनी होती है। ये कंपनियों से चंदा प्राप्त भी कर सकती हैं और उसे पार्टियों में बांट भी सकती हैं।इसमें भी लेन-देन अज्ञात बना रहता है। जनवरी 2013 के बाद गठित सभी चुनावी ट्रस्टों को प्राप्त और वितरित धन का विवरण घोषित करना अनिवार्य है। इसके अलावा कॉर्पोरेट सेक्टर कंपनी एक्ट के प्रावधानों के तहत भी राजनीतिक दलों को चंदा दे सकते हैं। इसके तहत कोई भी कंपनी कितनी भी रकम किसी भी पॉलिटिकल पार्टी को दे सकती है। यानी कंपनियां और बड़े अमीर इस तरह से भी चंदा दे सकते हैं।

अब तक इलेक्टोरल बांड से मिले चंदे की करते हैं। अभी तक जो आंकड़े आए हैं, उससे कई सवाल सीधे तौर पर खड़े हो रहे हैं। मसलन जो सबसे बड़े डोनर हैं, उन्होंने दानवीरता में कमाल कर दिया है। उन्हें अपनी कमाई से 600 गुना ज्यादा दान कर दिया है। अब सवाल है कि आप अगर 100 रुपये कमाते हैं तो 600 रुपये दान कहां से कर रहे हैं।

कुछ तो लोचा है..

दूसरा सवाल है कि जिन कंपनियों पर ईडी-सीबीआई की जांच चल रही है, उन्होंने चुनावी बांड के जरिए खूब चंदा दिया है। जैसे आरपीजीएस की हल्दिया एनर्जी, डीएलएफ, फार्मा कंपनी हेटेरो ड्रग्स, वेलस्पन ग्रुप, डिवीस लेबोरेट्रीज और बायोकॉन की किरण मजूमदार शॉ ने काफी बॉन्ड खरीदे हैं। इसी तरह टॉप डोनर फ्यूचर गेमिंग, मेघा इंजीनियरिंग भी एजेंसियों के रडार पर है। तो क्या इसका भी कोई कनेक्शन है… ये कैसे पता चलेगा. तो इसका राज इलेक्टोरल बांड के अल्फा न्यूमेरिक नंबर में छिपा है। जिसकी जानकारी SBI ने अभी तक चुनाव आयोग को नहीं दी है।

इलेक्टोरल बांड खरीदने वाले एक शख्स का दावा है कि इस अल्फा न्यूमेरिक नंबर को अल्ट्रा वायलेट किरणों से ही देखा जा सकता है। और यह हर बांड का एक यूनीक नंबर है। जिसको अनलॉक करने के बाद यह पता चल जाएगा कि किस व्यक्ति-कंपनी ने किस राजनीतिक दल को चंदा दिया है। क्योंकि अभी यह जानकारी सामने नहीं आई है। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस जानकारी को सार्वजनिक करने की बात कही है।

हमाम में सब शामिल

लेकिन जो आंकड़े सामने आए हैं। उससे यह तो साफ है कि इलेक्टोरल बांड का फायदा सभी राजनीतिक दलों ने लिया है। विपक्ष चाहे जो भी आरोप लगाए लेकिन वह भी इलेक्टोरल बांड से चंदा लेने में पीछे नहीं रहा है। इसीलिए भाजपा के बाद सबसे ज्यादा चंदा पाने वाले राजनीतिक दलों में तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस, बीआरएस, बीजू जनता दल भी शामिल है। सबसे चौकाने वाली बात यह है कि भाजपा पिछले 10 साल से केंद्र में शासन कर रही है। और करीब-करीब आधे देश में उसकी सरकार है। और उसके 303 सांसद हैं। उसके बावजूद एक राज्य में सत्ता में शामिल तृणमूल कांग्रेस दूसरे नंबर पर सबसे ज्यादा चंदा पाने वाली पार्टी है। ऐसे तेलांगाना की बीआरएस और उड़ीसा की बीजू जनता दल भी पीछे नहीं है। वहीं कांग्रेस भी तीसरे नंबर पर है। और अहम बात यह है कि 16518 करोड़ में से भाजपा को केवल छह हजार करोड़ ही मिले हैं बाकी के 10 हजार करोड़ दूसरी पार्टियों को मिला है।

कहीं शेल कंपनियों का तो खेल नहीं

अनलिस्टेड कंपनियों में इलेक्टोरल बांड खरीदने की क्यो होड़ है। यह भी सवाल परेशान कर रहा है। सबसे ज्यादा चंदा देने वाली कंपनियां अनलिस्टेड हैं। ऐसे में इन कंपनियों के बारे में यह पता लगाना मुश्किल है कि वह प्रॉफिट में हैं या लॉस में हैं। और उनका गठन कब हुआ। क्या इन कंपनियों का गठन केवल चंदा देने के लिए हुआ है। क्या ये शेल कंपनियां हैं। जिससे बड़े कॉरपोरेट के नाम सामने न आए। यह ऐसे सवाल जो उठ रहे हैं। जिनके जवाब सामने आना बेहद जरूरी है।

अब सवाल है कि क्या इलेक्टोरल बांड को खत्म करना ही एक तरीका था। क्योंकि गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा है कि जब इलेक्टोरल बांड नहीं था तो क्या चुनाव में पारदर्शिता थी। उसके पहले तो सब अंडर टेबल था। इलेक्टोरल बांड से तो सारे लेन-देन ऑन रिकॉर्ड हैं। शाह ने कहा कि मेरा निजी तौर पर मानना है कि इसमे सुधार करना चाहिए था। शाह के इस बयान यह बहस भी छिड़ेगी कि चुनाव चंदे में पारदर्शिता का परफेक्ट मॉडल क्या होना चाहिए।

जनता को सब जानने का हक

एक बात और समझनी चाहिए कि देश में केवल लोकसभा चुनावों पर एक लाख करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं। और इसी तरह विधान सभा चुनावों में 2-3 लाख करोड़ रुपये का खर्च आता है। और अगर 5 साल में इलेक्टोरल बांड से मिले 16000 करोड़ की चंदे की बात करें तो वह ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर है। इसलिए पारदर्शिता के लिए लंबी कवायद करनी होगी। लेकिन इस बीच कानून बनाने वाले राजनीतिक दलों को समझना होगा कि जिस जनता द्वारा वह चुने जाते हैं, उससे सब-कुछ जानने का हक है और उससे गोपनीयता के नाम पर कुछ नहीं छुपाया जा सकता।