एनीमल ने गढ़ा है फिल्मों का नया ग्रामर, कितना सही है इस मूवी का विरोध
Animal Film : एनिमल एक ऐसी मूवी है जिसने दर्शकों का प्यार भी उतना ही पाया है जितना की नफरत बटोरी है। इस फिल्म के प्रति अपने विचारों में जितना दर्शक बंटे हुए हैं हैं उतना ही समीक्षक और फ़िल्मकार भी। रामगोपाल वर्मा की मानें तो इस फिल्म ने कहानी कहने की एक नई प्रथा को जन्म दिया है और फिल्म बनाने के क्राफ्ट को एक नया ग्रामर मिला है।
सोशल मीडिया पर दिखी लोगों की नाराजगी
उन्हीं के स्कूल से निकले अनुराग कश्यप भी फिल्म के बारे में कसीदे काढ़ रहे हैं। दूसरी और फिल्म उद्योग से जुड़ा एक बड़ा तबका इस फिल्म के संवाद और और नायक के चरित्र-चित्रण को लेकर कई सवाल खड़े कर रहा है। यही नहीं फिल्म में जिस तरह से महिला किरदारों को दर्शाया गया है वह भी कइयों को काफी नागवार गुजरा है और सोशल मीडिया खासकर इंस्टाग्राम पर लोगों ने तरह-तरह से अपनी नाराजगी जाहिर की है। किसी का कहना है की वो रश्मिका द्वारा अभिनीत भूमिका कभी नहीं करते तो कितनों ने तृप्ति के किरदार पर भी सवालिया निशान खड़े किये हैं।
एक बात पर सब हैं सहमत
इनका कहना है कि फिल्म नारी विरोधी और पुरुष सत्ता को पोषित करने वाली है। एक पूरा वर्ग है जो फिल्म में दिखाए हिंसा को अतिरंजित मानता है। इन सबके बीच अगर किसी बात पर सभी एकमत हैं तो वो है बॉबी देओल और रणबीर कपूर के अभिनय की प्रशंसा। फिल्म की बुराई करने वाले भी इनके अभिनय का लोहा मान रहे हैं लेकिन यहां भी एक वर्ग ऐसा है जिसका कहना है कि चीखना-चिल्लाना अभिनय की श्रेणी में आता ही नहीं।
तो ऐसी फिल्म नहीं बनाई होती
कइयों का कहना है कि ऐसी फिल्में बनानी ही नहीं चाहिए जो समाज को पीछे ले जाएं। ऐसे में सवाल ये उठता है कि फिल्में समाज को पीछे ले जाने में सक्षम हैं तो वो आगे भी ले जाने में सक्षम होंगी। तो क्या आज तक कोई ऐसी फिल्म नहीं बनी जिससे समाज आगे बढ़ पाए? यदि बनी होतीं तो निश्चित ही समाज आगे बढ़ गया होता और जिन भी लोगों ने मिलकर ये मूवी बनाई है, उन्होंने इसे बनाने का सपना न देखा होता।
क्या इससे अधिक हिंसक फिल्में नहीं बनीं?
क्या यथार्थ दिखाने के नाम पर ऐसी ही या इससे भी अधिक हिंसक फिल्में नहीं बनी? या फिर जिस तरह का अत्याचार इस फिल्म के महिला किरदारों पर होते हुए दिखाया गया है वैसा सच में नहीं होता अब? नहीं होता तो कोई बात नहीं। पर यदि होता है तो क्या यथार्थ दिखने के नाम पर इन फिल्मकारों को ये छूट नहीं मिलनी चाहिए कि वो भी अपनी कहानी अपने तरीके से कह पाएं?
पसंद-नापसंद के हिसाब फिल्में चुनने का हक
मुद्दा तो यहां बाजार का है। बाजार में बिकने वाली चीजों की विविधता का है। यदि मैला आंचल बिकता है तो कप्तान गोगो भी और कल्याण बिकता है तो प्लेबॉय भी। तो आपके पास चुनने के लिए फिल्मों में भी विविधता है। जो जिसे पसंद वो चुने और देखे। समाज से ही फिल्मों को कहानियां मिलती हैं और फिल्मों से समाज को सपने। एनिमल फिल्म के साथ हुआ व्यवहार यही बताता है कि इस बाजार में चुनने का अधिकार सबके पास है। लोग अपनी पसंद और नापसंद के हिसाब से अपनी फिल्में चुन सकते हैं।