लटके-झटके नहीं फिल्मी कैमरों ने विस्थापन को भी किया है कैद, सिर्फ 2 मिनट में पढ़ें पूरी स्टोरी
Hindi filmon me visthapan: ‘May be this is the way forward. इसी को लोग डेवलपमेंट बोलते हैं. But अपनी रूट्स ? अगर उनको उखाड़ दो तो क्या बचेगा?’ पीकू फिल्म का यह संवाद कहीं गहरे, बहुत गहरे हर उस इंसान के हृदय को भेद देता है, जो अपन घर, अपना गाँव, अपना शहर किसी ना किसी ना वजह से छोड़ने को मजबूर हुए हैं।
एक ऐसा दर्द जो देता रहता है टीस
विस्थापन एक ऐसा दर्द है, जो टीसता रहता है, बार-बार व्यक्ति को अपनी जड़ों की याद दिलाता रहता है। अपनी जड़ों से जुड़े रहने की लालसा इतनी अदम्य होती है कि भले ही गिरमिटिया बनकर सात समंदर पार चले गए, सौ दो सौ साल बिता दिए वहां, पर पीढ़ियां अब भी अपने लोकाचार, मंगलगान, रीती रिवाज़ सम्हाले हुए हैं और मौका मिलते ही अपने देस की माटी छूने चले आते हैं। अपनी मिट्टी से दूर होने का यह दर्द हिंदी फिल्मों में भी वैसे ही बार-बार लौट आता है जैसे पुरवाई बहने से पुराने दर्द फिर से उभर आते हैं ।
देस- परदेस से डंकी तक
यह दर्द कभी देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत होता है तो कभी वापस लौटकर अपने देश की बदहाल व्यवस्था को सुधारने की कोशिश के रूप में परदे पर साकार हो जाता है। लेकिन मूल भाव यही होता है कि अपनी अस्मिता, अपना सम्मान, दोनों ही अपनी मिटटी से जुड़े बगैर बचाई नहीं जा सकती। देव आनंद की ‘देस-परदेस’ (1970) हो या मनोज कुमार की ‘पूरब और पश्चिम’ (1978) दोनों ही फिल्में भारतीय युवाओं के आकांक्षाओं और सपनों को दिखाती हैं जो विदेश जाकर कुछ बनना चाहते हैं लेकिन दिग्भ्रमित साबित होते हैं और तब अपनी मिट्टी और देश का महत्त्व समझ पाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे डंकी (2023 )में शाहरुख़ खान और उनके साथियों को अपने देश और अपनी मिट्टी का महत्त्व लन्दन पंहुचकर समझ आता है।
कोई कैसे भूल सकता डीडीएलजे
बाद की फिल्मों में एन आर आई हावी हुए और ऐसी परिस्थितियां दिखाई गईं जहाँ अपने देश की संस्कृति को बचाकर रखना और जड़ों से जुड़े रहने के लिए परदेस में सौ जतन किये जा रहे है जैसे दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे के कड़क पिता पश्चिम में रहते हुए भी वहां के रीती रिवाज़ों से अपनी बेटियों को दूर रखते हैं और उनकी परवरिश बहुत सी बंदिशों और अनुशासन के बीच करते हैं। वहीँ परदेस में पिता अपने बेटे के लिए एक संस्कारी भारतीय बहु लाना चाहते हैं ताकि उनकी आनेवाली पीढ़ियां अपने देश से जुड़ी रहे।
जागते रहो से लेकर स्वदेश
स्वदेश में शाहरुख़ खान अपनी नौकरी छोड़कर गांव में बिजली लाने का संकल्प कर बैठते हैं। जैसा की नाम से ही ज़ाहिर है आ अब लौट चले में भी देस वापस लौटने की ही बात है।रोजी रोटी की तलाश में गाँव से शहर आकर बसे मजदूरों के जीवन और दर्द को भी फिल्मों में दिखाया जाता रहा है। शुरूआती दौर में जागते रहो (1955 ), शहर और सपना (1953) दो बीघा ज़मीन श्री 420 (1956 )जैसी फिल्मों ने बहुत हद तक उनके जीवन को सिनेमा के परदे पर उतरने में सफलता पाई।
रुला देगी गमन
मुजफ्फर अली की गमन (1978) भी एक ऐसी ही फिल्म है जो उत्तर प्रदेश से मुंबई आकर बसे उन लोगों का दर्द बयां करती है जो यहाँ ड्राइवर का काम करते हैं। सई परांजपे की दिशा (1990) भी मुंबई में बेस उन लोगों की कहानी बयां करती है जो देश के विभिन्न राज्यों से बेहतर भविष्य की तलाश में वहां पंहुचे हैं और मुंबई को नर्क मानते है और अपने घर को स्वर्ग के रूप में याद करते हैं।कहा जा सकता है कि मुख्यधारा की फिल्में हों या समानांतर फिल्में, अपने देश, अपने माटी, और अपने जड़ों से जुड़े रहने की इच्छा, दर्द, और कसक को सिनेमा के परदे पर लाने का काम हिंदी फिल्म उद्योग करता रहा है।