Panchayat Season 3: कितना देसी और गंवई है पंचायत सीरीज का फुलेरा गांव? केवल फील गुड वाला अहसास ही

 

Panchayat Series: ग्रामीण परिवेश में बनी वेब सीरीज पंचायत लोगों को खूब पसंद आई है। तीसरा सीरीज भी लोग देख चुके हैं। अब चौथे सीरीज की तैयारी है। पंचायत के किरदार अपने बीच के और जाने-पहचाने से लगते हैं। यह किरदारों के अभिनय की खासियत और काबिलियत ही है कि कुछ एपिसोड बोझिल और धीमा होने के बावजूद भी आप एपिसोड दर एपिसोड देखते चले जाते हैं। हर एक चरित्र, उनके संवाद का लहजा आकर्षित करता है। ‘ए महाराज’, ‘हां नहीं तो’ जैसे रोजमर्रा के संवाद का हिस्सा रहे ये शब्द मौलिकता का जामा पहनाते हैं।

फुलेरा वह गांव नहीं जो सच में होते हैं

लेकिन सवाल है कि सीरीज में जैसा गांव दिखाया गया है वैसा होता है क्या? पूरे बलिया जिले में ऐसा एकरस और एकांगी गांव नहीं मिलेगा। फुलेरा वह गांव नहीं जो सच में होते हैं। पंचायत का फुलेरा वह गांव है जो एकाध महीने की छुट्टी मनाने गांव आए शहरियों को दिखाई सुनाई देता है। सोशल मिडिया पर नब्बे के दशक की यादें साझा करने वाले लोगों के मन में जो गांव बसा हुआ है, और ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ पढ़कर जो पीढ़ी बड़ी हुई है। ये गांव उस गांव की छवि को पुख्ता करता है।

गांव की असली तस्वीर नहीं

खेत-खलिहान और मिटटी की खुशबू का महिमा मंडन करने वालों के दिल के ज्यादा करीब है यह फुलेरा गांव। यही वजह है की सोशल मीडिया पर इसकी तूती बोल रही है। इसका मतलब यह कत्तई नहीं की ऐसे लोग नहीं होते जैसा कि फुलेरा में दिखाया गया है। पर ऐसे लोगों के अलावा और भी बहुत तरह के लोग होते हैं जो फुलेरा में दिखते ही नहीं।

इसके चरित्र मानवीय हैं

कहा जा सकता है कि पंचायत में फुलेरा गांव है ही नहीं। नामभर है उसका। सीरीज में तो विनोद हैं, भूषण हैं, प्रह्लाद चा हैं, चन्दन हैं, रिंकी है, रवीना हैं, यहां तक की लौकी भी है। अगर नहीं है कुछ तो वह है फुलेरा गांव और गांव की तासीर। चरित्रों को देखें तो सारे बहुत प्यारे हैं। मानवीय हैं। और ध्यान से देखें तो एक खास वर्ग के हैं। कलाकार से लेकर निर्देशक और लेखक तक किसी खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।

गांवों की राजनीति अलग दर्जे की होती है

जाहिर है गांव का चित्रण वो ऐसे ही करेंगे जैसे कि वो उसे देखते-समझते हैं ना कि जैसा कि असलियत में गांव होते हैं। बलिया या फिर उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण जीवन को समझना हो तो वहां जाकर उनका होकर रहना पड़ेगा और तब जो तस्वीर दिखेगी वो सारे सामाजिक ताने-बाने को आपके सामने रख देगी। गांवों की राजनीति अलग दर्जे की होती है। परधानी के चुनाव के लिए जितना खेल गांव में होता है उसके आगे ममता दीदी का ‘खेला होबे’ भी फेल है।

भोजपुरी भाषा नहीं बोलते किरदार

ममता दीदी क्या, चाणक्य भी सोचने लगेंगे की गांव की राजनीति तो साम, दाम, दंड भेद नीति से भी परे की चीज है। मैंने अपनी किताब में ये सब क्यों नहीं लिखा। गंवई राजनीति के दांव-पेंच को समझने और उसका रस लेने वालों को इस सीरीज से घोर निराशा लगती है। दूसरी बात यह इस फुलेरा गांव में विविधता नहीं बल्कि एकरसकता है और भाषा? अरे! बलिया दिखा रहे हैं तो कम से कम भोजपुरी के दो चार लाइन ही किसी पात्र से बुलवा दिए होते? ये भी भोजपुरी के नाम पर गाना सुना कर चल दिए। अरे भाई! बहुत पुरानी भाषा है! वो तो हिंदी वालों की कृपा रही की बोली बन कर रह गई है। सीरीज में गाने के अलावा भी बहुत कुछ हो सकता है!

भोजपुरिया अंदाज भी नहीं

समाज कोई भी हो उसके अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा माध्यम उसकी भाषा होती है। फुलेरा बलिया का गांव है और बलिया की भाषा 100 टके भोजपुरी है लेकिन बलिया का, बलियाटिक अंदाज और जज्बात, ये दोनों चीजें नदारद और लापता है। यह खीझ भोजपुरिया लोगों की बातचीत में भी झलकती है। उम्मीद है कि पंचायत की अगली सीरीज में भोजपुरिया गांव, उसके गंवईपन, बोली और ठिठोली का तड़का लगा होगा।