मातृभाषा दिवस: कल्चर इंडस्ट्री, सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर हो भोजपुरी गानों में अश्लीलता की चर्चा
International Mother Language Day : मातृभाषा दिवस है आज। और हमेशा की तरह हम अपनी भाषा, बोली, की लड़ाई में उलझेंगे, एक दूसरे को भाषा, बोली बचाने के लिए प्रवचन देंगे और फिर सब कुछ भूलकर अपने बच्चों को एक अच्छे से अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेजकर, बहुत गर्व से ‘मेरे बच्चे को भोजपुरी/बांग्ला/गुजराती/ओड़िया तो छोड़ो हिंदी तक बोलने, समझने नहीं आती’ कहकर, अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा पा लेंगे। बाकि भाषाओं का तो मैं अनुमान के आधार पर कह रही, पर भोजपुरी और बांग्ला भाषा बोलनेवालों पर तो मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि यह कथन सौ प्रतिशत लागू होता है। बांग्ला में तो एक कविता भी है ‘बांग्ला टा ठीक आसे ना।’ (बांग्ला ठीक से नहीं आती)।
ये तब है जबकि बांग्लाभाषियों की छबि भद्रलोक और, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध समाज की बनी हुई है। और तो और यही वह भाषा है जिसके आधार पर बांग्लादेश बना और अपनी मातृभाषा बांग्ला के लिए बांग्लादेश के बलिदान को मान्यता देते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में घोषित किया। लेकिन हमारे भोजपुरिया समाज की तो छवि ही भदेस, गंवार, और पिछड़े वर्ग के रूप में बनी हुई है। भोजपुरी मतलब अश्लील, गंवार, भदेस और ‘गोबर पट्टी’के लोगों की भाषा।
भोजपुरी गानों की बहुत बड़ी भूमिका
ऐसी मान्यता दिनों दिन बलवती होती जा रही है कि भोजपुरिया समाज की छवि खराब करने में भोजपुरी गानों की बहुत बड़ी भूमिका है। सवाल ये है कि कौन सी छवि? वह जो पारम्परिक मान्यता और विचारधारा जनित है जहां एक आदर्श समाज और व्यक्ति की कल्पना की गई है? वह जो मध्यवर्गीय मान्यताओं और अहम को पुष्ट करती है? क्योंकि यदि गीतों और फिल्मी गानों से ही भोजपुरी समाज की अस्मिता और पहचान को बनना-बिगड़ना है तब तो एक नजर उन लोकगीतों पर भी डालना होगा जिन्हें अक्सर भोजपुरी की समृद्ध परंपरा के रूप में दिखाया जाता है, जो की सच भी है।
सुंदर और समृद्ध लोकगीत
ध्यान देने वाली बात है कि भोजपुरी के बचाव में अक्सर लोग ये कहते हुए सुने जाते हैं कि हमारे लोकगीत देखो कितने सुन्दर, और समृद्ध हैं, इन भोजपुरी फिल्मों के गानों ने सारा माहौल खराब कर दिया है। जिन सुन्दर, शुद्ध लोकगीतों के प्रकाश में ऐसी बातें कही सुनी जाती हैं, और महिलाओं को सदाचार और शुद्धता के सामाजिक मानदंडों के अनुरूप, आत्म-त्याग करने वाली और आत्म-बलिदान करने वाली के रूप में दिखाने वाले गीतों की दुहाई दी जाती है, उन्ही गीतों के मध्य ऐसे अनगिन गीत हैं जो पिया के परदेस जाने की वजह से विरह का संताप झेलती (कवनि उमरिया सासु, निबिया लगायेन, कवनि उमरिया गै बिदेसवा हो राम।। खेलत-कुदत बहुरि निबिया लगायेन, रेखीय भिनत गै बिदेसवा हो राम ।। फ़रिगै निबिया, लहसि ससुर गै डरिया, तबहु ना आये तोर बिदेसिया हे राम ।। जेठ, और देवर की बुरी नजर का शिकार बनती, और सास, ननद, की प्रताड़ना सहती हुई महिलाओं के दर्द को दर्शाती हैं।
मनो-सामाजिक परिस्थितियों को दर्शाते हैं गीत
यही नहीं, ये गीत उन्हें अपनी यौन इच्छाओं और निराशाओं को व्यक्त करते हुए और कभी-कभी सदाचार की पारंपरिक धारणाओं को चुनौती देते हुए भी दिखाती हैं। इसके अलावा, महिलाओं को व्यंग्यात्मक, प्रतिशोधी और वैवाहिक रोमांस की कल्पना करने वाली के रूप में भी चित्रित करते हैं। एक खेतिहर समाज की सामाजिक संरचना में महिलाओं के स्थान, अनुभव, और विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं। ये गीत उन मनो-सामाजिक परिस्थितियों का भावपूर्ण चित्रण करते हैं जहां विरह की वजह से औरतों की ना तो शारीरक जरूरतें पूरी होती नजर आती हैं और न ही मानसिक। बारहमासा के तमाम लोकगीत इसी विषय वस्तु पर केंद्रित हैं। जाहिर है कि इन गीतों का विषयवस्तु बहुत हद तक सेक्सुअल ही होगा। जंतसार, सोहनी, रोपनी के गीतों में अक्सर एक ऐसी कहानी मिलती है जिसमे कोई कामी पुरुष किसी स्त्री को आकर्षित करने का प्रयास करता है।
क्या ‘नाच’कला को भी अश्लील मान लेंगे?
दूर क्यों जाना? बिदेसिया तो याद ही होगा। नाम से ही जाहिर है कि इस कालजयी रचना का कथानक परदेसी पिया के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है। भिखारी ठाकुर, जिन्हे भोजपुरी का शेक्सपियर कहा जाता है ने ‘नाच ’कला को घर-घर पंहुचाया और बहुत से ऐसे नाटक लिखे जिनका मंचन वो शहर-शहर घूम-घूम कर करते रहे। ‘नाच’ वह कला है जिसका प्रदर्शन अधिकतर हाशिये पर रहने वाले ही करते हैं। द्विअर्थी संवाद और पुरुषों द्वारा महिला बनकर अभिनय करना इसकी सबसे बड़ी पहचान है। इन नाटकों का विषयवस्तु विवाहेतर सम्बन्ध, सवर्ण जातियों का अत्याचार और शोषण, प्रेम और विवाहेतर सम्बन्ध ही हैं। तो क्या इस ‘नाच’कला को भी अश्लील मान लेंगे?
पहले गिरमिटिया अब भैया
महत्वपूर्ण बात ये है कि ‘नाच’ कला का ‘लौंडा नाच’ में बदलना भी मध्यवर्गीय और सामंती सोच की ही देन है। जाहिर है यह जो अश्लीलता भोजपुरी फिल्मों के गानों में नजर आती है, उसे समझने के लिए उसके उत्स को समझना जरूरी है। और यह उत्स है भोजपुरिया समाज की वह हकीकत जिससे मध्यवर्ग हमेशा से आंखें चुराता आया है। भोजपुरिया समाज अभी भी जाति प्रथा से जूझ रहा है, गरीबी से जूझ रहा है और अपने आकांक्षाओं और सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद उसे गांवों से पलायन कर शहरों में नारकीय परिस्थिति जीने के लिए मजबूर कर देती है। पहले ये लोग गिरमिटिया बनकर बाहर गए तो अब भैया बनकर मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, अहमदाबाद, और लुधियाना जैसे शहरों और अरब जैसे देशों का रुख कर रहे हैं और पीछे छोड़कर जा रहे हैं बीवी, बच्चे और परिवार।
शहर में सबसे पहले अपनी भाषा छोड़ते हैं भोजपुरिया
वही परिवार जिसमें अलग-अलग तरह के शोषण का शिकार महिलाएं पहले भी होती थीं और आज भी होती हैं। ऐसे में हर दर्द गीतों और गानों में पिरोया हुआ मिलता है। तो कल का सच लोकगीतों से झलकता है और आज के फिल्मी गीतों से। और इस समाज का एक बहुत बड़ा तबका शहर में पांव रखते ही सबसे पहले अपनी भाषा तजता है, जाति और धर्म नहीं। ये दोनों तो वो अमरीका तक लेकर चला जाता है। जब अपनी ही भाषा से प्यार नहीं रहेगा तो उस भाषा के साधारण और चुटीले गाने भी अश्लील ही प्रतीत होंगे।
बदलाव के संकेत भी दे रहे भोजपुरी गीत
कुछ गानों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश गाने कहीं ना कहीं लोकगीतों की परिपाटी पर ही चल रहे हैं और मस्ती, व्यंग्य, और चुटीलेपन को दर्शाने में लोकगीतों की बराबरी करते नजर आते हैं। यही नहीं ‘दहेज देके किनले बानी’जैसे जैसे गीतों के द्वारा समकालीन सामाजिक और आर्थिक बदलावों के संकेत भी दिखाई दे जाते हैं। देखा जाए तो दोनों ही तरह के गीतों का उत्स सामाजिक संरचना में है जो दशकों से नहीं बल्कि सदियों से विस्थापन का दंश झेल रही है। पिया परदेस और कलकत्ता अगर बीती सदी की बात है तो संईया अरब, लुधियाना, गुजरात और बम्बई इस सदी की। जाहिर है विस्थापन से उपजे विरह का दंश, घरेलू उत्पीड़न, अत्याचार और यहाँ तक की यौन हिंसा की शिकार महिलाओं का दर्द भी भोजपुरी फिल्मों के गानों में उभर कर आया है।
भोजपुरी गानों में अश्लीलता क्यों, समझना जरूरी
विस्थापन इस भोजपुरिया समाज की सबसे बड़ी त्रासदी है और सारे लोकगीतों के मूल में उसकी वजह से होने वाले मुद्दे। चाहे पूरब से सौतन लाने की बात हो, या फिर किसी से से नैन लड़ जाने की या फिर सास ननद को उलाहने देने की। इसका ये मतलब नहीं की अश्लीलता नहीं है गानों में। अश्लीलता है और इसकी चर्चा भी होनी चाहिए। लेकिन जब भी चर्चा हो भोजपुरिया समाज की पृष्ठभूमि को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। अगर भोजपुरी गानों में अश्लीलता बढ़ती जा रही है तो क्यों? यह समझना जरूरी है।
भोजपुरी गीतों पर बाजार का दबाव
संबंधों की जिस ऊष्मा से भोजपुरी लोकगीत जीवंत हैं, उन्हें खत्म करने में कहीं ना कहीं बाजार की भी बहुत बड़ी भूमिका है। बाजार है तो पैसा है। सारा खेल पैसों और बिजनेस का है। रही सही कसर यूट्यूब के लाइक, शेयर, और सब्सक्राइबर बढ़ाने की होड़ ने पूरी कर दी है। क्लिकबेट के चक्कर में कुछ भी किया जा रहा है। लोक संस्कृति की कीमत पर एक खास तरह की बाजारू संस्कृति विकसित की जा रही है। इसे समझे बगैर भोजपुरिया समाज के युवाओं को इस बात के लिए दोषी ठहराना कि अश्लीलता उनकी वजह से बढ़ रही है ठीक नहीं।