आदर्शवाद से लेकर ग्लैमरस भूमिका तक, फिल्मों में ऐसे बदलता गया टीचर का रोल

 

हिंदी फिल्मों में शिक्षकों के किरदार बड़े दिलचस्प अंदाज़ में दिखाए गए हैं। आज़ादी के बाद से देखें तो बहुत सी ऐसी फिल्मे बनी जिनमे ऐसे शिक्षकों को दिखाया गया जो गैर परंपरागत ढंग से पढ़ने पढ़ाने में विश्वास रखते हैं, राह से भटके बिगड़ैल बच्चों को अपनी नवाचारी पद्धतियों से पढ़ाते हैं और उन्हें सही राह पर लाते हैं । कहीं ना कहीं गांधी और टैगोर के शिक्षण कला की झलक और आदर्श उनमे झलकते हैं। 1954 में आई जागृति एक ऐसी ही फिल्म है जिसका एक गाना ‘आओ बच्चों तुम्हे दिखाऊं झांकी हिन्दुस्तांन की..’.काफी लोकप्रिय है।

कैसे भूल सकते हैं ये फिल्में

1967 में आई जीतेन्द्र और मुमताज अभिनीत फिल्म ‘बूँद जो बन गए मोती’ भी एक ऐसी फिल्म है जिसमें जीतेन्द्र ने एक आदर्शवादी शिक्षक की भूमिका निभाई है जो गाँव के बच्चों को नई पद्धतियों से पढ़ाना चाहते हैं और बहुत बार इसकी वजह से परेशानी में पड़ जाते हैं। प्रकृति को समझना है तो उसकी गोद में जाना पड़ेगा यही उनका मूल मन्त्र होता है। यहाँ भी टैगोर के शिक्षण पद्धति की झलक दिखाई दे जाती है। जीतेन्द्र की ही एक और फिल्म परिचय 1972 में आई थी जिसमें वो एक परिवार के चार बिगड़ैल बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने जाते हैं और उन बिगड़ैल बच्चों को नए तरीकों से पढ़ाकर स्कूल जाने के लिए तैयार कर देते हैं। ज़ाहिर है शुरूआती दौर की लगभग सारी फिल्मों में शिक्षक को बेहद आदर्शवादी रूप में दर्शाया गया है।

ये फिल्में तो याद ही होंगी

राज कपूर ने भी अपनी शुरूआती फिल्मों में जैसे कि श्री 420 में नरगिस को एक आदर्शवादी शिक्षक के रूप में ही दिखाया। लेकिन सत्तर के दशक में जब उन्होंने ‘मेरा नाम जोक’र बनाई तो शायद पहली बार एक शिक्षक को ग्लैमरस अवतार में दिखाया। उन्होंने किशोर वय के ऋषि कपूर को अपनी शिक्षिका सिमी ग्रेवाल के प्रति आकर्षित होते दिखाया। और यहाँ से जो शिक्षक खासकर महिला शिक्षकों को ग्लैमरस रूप में दिखाना जारी हुआ तो आज तक उन्हें ऐसा दिखाने का चलन जारी है। चाहे मैं हूँ ना (2004 ) की सुष्मिता सेन हों या नशा (2013) की पूनम पांडेय। दोनों ही फिल्मों में शिक्षिकाओं को एक ऐसे ग्लैमरस अवतार में दिखाया गया जिन्हें देखते ही स्टूडेंट्स उनकी तरफ खींचे चले जाते हैं। इसी दौरान कुछ ऐसी फिल्मे भी आईं जिन्होंने फिर से आदर्श और एक अनुशासन प्रिय शिक्षकों को दिखाया जैसे मोहब्बतें (2000 ) में अमिताभ बच्चन का किरदार। एक तरफ आदर्शवादी और दूसरी तरफ ग्लैमरस अवतार के दौर में ही कुछ ऐसी फिल्में आईं जिन्होंने शिक्षक के किरदार को एक यथार्थवादी स्वरुप दिया और हरामखोर (2015) जैसी फिल्म आई।

नवाजुद्दीन सिद्दीकी और श्वेता त्रिपाठी अभिनीत इस फिल्म में उस शिक्षक को दिखाया गया है जो अपने स्टूडेंट को बहला फुसला कर उनका यौन शोषण करता है, और देखा जाए तो वर्तमान में आए दिन ऐसी खबरें सुनने में आती रहती हैं। एक ऐसी ही फिल्म और भी है जो शिक्षक के खड़ूस और नरम दोनों ही रूपों को दिखाती है स्टैनली का डब्बा (2011 ), जिसमें अमोल गुप्ते बच्चों को सताते हैं तो दिव्या दत्ता उनके अधिकारों के लिए लड़ती हैं। जब बच्चों के अधिकारों की बात हो तो रानी मुख़र्जी के हिचकी (2018 )को कैसे भूल सकते हैं जो समाज के हाशिये के बच्चों को गैर परम्परागत तरीके से पढ़ाती हैं और उन्हें सफलता दिलाने में कामयाबी हासिल करती हैं। और जब बात गैर परंपरागत या नए तरीके से या फिर बच्चों को उनके स्तर और उनके अनुसार पढ़ाने की बात हो तो तारे ज़मीन पर (2007) तो एक मील का पत्थर साबित होती है जिसमें आमिर खान एक ऐसे शिक्षक बने हैं जो बच्चों की जरूरतों, क्षमताओं, और पहचान कर उन्हें उनके अनुसार ही पढ़ाने की वकालत करते हैं।

चक दे इंडिया से 12वीं फेल तक

हिंदी फिल्मों की एक ऐसी भी लम्बी फेहरिस्त है जिनमें स्पोर्ट्स कोच को दिखाया गया है जो अपनी टीम को जिताते हैं जैसे कि चक दे इंडिया (2007), या एक खिलाडी को टीम के लिए तैयार करते हैं जैसे की इकबाल (2005)। खेल और उनके कोच पर आधारित लगभग सभी फिल्में उनकी दृढ़ता, इच्छाशक्ति, और विपरीत माहौल में भी जीत के जज्बे को बनाये रखने की काबिलियत को दिखाते आये हैं।और समय के साथ जब समाज में कोचिंग संस्थानों और गुरुओं की बाढ़ आई तो फिल्मों में कैसे ना आती। नतीजा सुपर 30 में ऋतिक रोशन आनंद कुमार का किरदार निभाते नजर आये तो बारहवीं फेल में दृष्टि आई ए एस के विकास दिव्यकीर्ति स्वयं ही अवतरित हो गए।

कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों ने शिक्षकों के हर रूप को दिखाने की कोशिश तो की है, मगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ऐसी फिल्म का इंतज़ार बना हुआ है जो एक शिक्षक को ना तो आदर्श की प्रतिमूर्ति के रूप में दिखाए, ना ही हमेशा कुछ कर गुजरने की तमन्ना में, ना ही वह केवल ग्लैमरस नजर आये और ना ही खड़ूस। एक ऐसा किरदार हो जो हमारे आस पास हैं, अपनी सभी खामियों, अच्छाइयों और इच्छाओं के साथ। एक ऐसी फिल्म जिसमें वह शिक्षक दिखे जिस शिक्षक को बच्चे जानते हैं, पहचानते हैं।