1990 के दशक के मध्यम वर्ग के सपनों को बारीकी से दिखाती है ‘ऑल इंडिया रैंक’

 

Varun Grover’s All India Rank: 21वीं सदी के तीसरे दशक में अगर कोई ऐसा शब्द है जो सोशल मीडिया और मनोरंजन के हर माध्यम में बेतरह छाया हुआ है वह है ‘नाइंटीज’, हिंदी में बोले तो नब्बे का दशक। कभी कोई ऐस पोस्ट पढ़ने में आती है कि, ‘गाने तो भई नाइंटीज के होते थे।’ कोई इंस्टाग्राम और फेसबुक पर उस समय दूरदर्शन पर आने वाले प्रचार शेयर कर रहा होता है। सैकड़ों फेसबुक पेज उस वक्त को समर्पित हैं और टॉफी, चॉकलेट से लेकर पता नहीं किन-किन चीजों की तस्वीरें उन पर आती रहती हैं और लाइक, कमेंट, शेयर बटोरती रहती हैं।

बारीकी से बदलावों को दिखाया

नब्बे के दशक के प्रति प्यार से मुंबई फिल्म उद्योग भी अछूता नहीं जिसकी परिणति है आल इंडिया रैंक मूवी। वरुण ग्रोवर जिनकी पहचान, गीतकार, लेखक, स्टैंड अप कॉमेडियन, पटकथा लेखक और अब निर्देशक की भी बन चुकी है, ने भी अपनी फिल्म के लिए नब्बे का दशक ही चुना। अपने गहरे, अर्थपूर्ण गीतों और गुरु गंभीर मुद्दों को स्टैंड अप कॉमेडी के जरिए प्रस्तुत करने में माहिर वरुण ग्रोवर जेनजी का परिचय नब्बे के दशक से कराते हैं। वह भी उन्हीं जैसे एक युवा की नजर से। एक ऐसा दौर जब उदारीकरण अंगड़ाइयां ले रहा था और मध्यम वर्ग आईआईटी के जरिये अपने सारे छोटे बड़े सपने पूरा कर लेने की चाहत रखता था। मध्यम वर्ग की उन तमाम चुनौतियों, सपनों, और किशोरों को खुद की तलाश करने के मौकों को बड़ी ही बारीकी से वरुण ग्रोवर ने अपनी फिल्म में दिखाया है।

युवा पीढ़ी सूचनाओं से ओवरलोडेड है-ग्रोवर

नब्बे का दशक परिवर्तन का दशक था। सामाजिक, राजनितिक, आर्थिक हर तरह के परिवर्तन का साक्षी। इन सबके बीच उस दौर के किशोर और युवा पीढ़ी कैसी थी? क्या सोचती थी? अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं से किस कदर वाकिफ थी? आज के किशोर और युवा पीढ़ी उस दौर के किशोरों और युवा पीढ़ी से किन मायनों में अलग है? हाल ही में दिए अपने एक इंटरव्यू में वरुण ग्रोवर ने कहा कि आज की युवा पीढ़ी सूचनाओं से ओवरलोडेड है। हद दर्जे की कनेक्टिविटी है उनके पास। लेकिन अपने आसपास के हालात से उस कदर वाकिफ नहीं रहती, जिस तरह उस समय हुआ करती थी।

बेहद खास हो जाता नब्बे का दशक

उस दौर की मासूमियत से उन्हें प्यार है और यही वजह है की निर्देशक के रूप में अपनी पहली फिल्म के लिए उन्होंने इस अवधि को चुना। नब्बे का दशक अपने आप में एक किरदार है जो फिल्म के पत्रों और कहानी को अकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नब्बे का दशक उदारीकरण की वजह से बहुत ही महत्वपूर्ण दशक है। भारतीय मध्य वर्ग की पहचान इस दौर में बड़े पैमाने पर बदली। सबको आगे जाना था, सबको अपने मध्यवर्गीय जीवन शैली से छुटकारा पाना था। रास्ता एक ही दीखता था आईआईटी।

सनक की तह तक जाने की कोशिश करते हैं वरुण

ग्रोवर अपनी फिल्म के जरिए इसी आईआईटी की सनक की तह तक जाने की कोशिश करते हैं। एक किशोर की नजरों से इस सनक को समझने की कोशिश में उसके मानस से भी दर्शकों को रूबरू कराते हैं। एक किशोर टॉपर नहीं बनना चाहता, उसे शीर्ष पर नहीं पंहुचना, उसे खुद को जानना है, छोटी-छोटी खुशियां हासिल करनी हैं। क्या कोटा जैसे शहर में मिल रही हैं उसे ये खुशियां? ये मौका? ग्रोवर की फिल्म यही पूछ रही है दर्शकों से!