12 वीं फेल तो देखिए ही इसे भी पढ़िए, कथा नहीं व्यथा है यह !

 

Swarnmayi Katha: ज़िंदगी की किताब में कुछ ऐसे अध्याय होते हैं जिनमें साल दर साल पन्ने जुड़ते जाते हैं। हर नया जुड़ता हुआ पन्ना पिछले पन्नों के हर्फ़ों को नई स्याही दे देता है और उनमें सिमटे पल एक के बाद एक खुलने लगते हैं, सिनेमा के रील की तरह चलने लगते हैं। ये घटनाएं ऐसी जिसके आप पात्र भी होते हैं और दर्शक भी। आपको गढ़ने, सँवारने और ज़िन्दगी को देखने समझने का नजरिया देनेवाली ऐसी ही कुछ अनमोल घटनाएं कोलकाता डायरी में आपको मिलेंगी जो कभी आपको गुदगुदाएंगी, कभी किसी गहन मानवीय अनुभूति से परिचित कराएंगी और कभी आपको अपने बचपन को फिर से जीने पर मजबूर भी कर देंगी।

‘ए सरऊ! ई फोटो सिंथेसिस माने प्रकाश संश्लेषण होत हौ? बताए काहे नहीं बे? ससुर रात भर जाग जाग के एका याद करा !पूरा घोर के पी गवा रहा, बाकिर ई बिसर गवा कि ओका अंग्रेज़ी नमवो याद करे पड़ी!’

‘ए मास्टरजी, बता दीजिए ना, ब्राट (brought) का मतलब?’

‘अब पिग्मेंट (pigment) क्या होता है?’

छठवीं कक्षा से हर वार्षिक अर्धवार्षिक परीक्षा के दौरान स्कूल में और अधिकतर बाड़ी में इन जैसे अनंत उद्धरण और प्रश्नों की बौछार बिलकुल सामान्य बात थी। शिक्षक भी इन पर कान ना देने के अभ्यस्त हो गए थे। कब की बात है ये?

ये उन पूर्व उदारवादी, पूर्व वैश्वीकरण और पूर्व बाजारवाद के दिनों की बात है, जब गिनती के अति धनिक घरों के बच्चे उंगली पर गिन लेने लायक अति सुन्दर विशाल निजी स्कूलों में पढ़ने जाए करते थे। बाकी का खाता पीता भारत जी. आई. सी. अर्थात गवर्नमेंट इंटर कॉलेज और जे. आई. सी. अर्थात जनता इंटर कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर अघा जाया करता था। लेकिन पश्चिम बंगाल में स्थिति थोड़ी हट कर थी। भाई, उन्हें अपनी विरासत का ध्यान रखना था। नवजागरण का प्रणेता था हमारा बंग प्रदेश। गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा भी था कि बंगाल अपनी सोच में हमेशा आगे रहता है। तो वैश्वीकरण से बहुत पहले ही अंग्रेज़ी के महत्व को समझते हुए ऐसी नीति बनाई गई थी कि भले ही बच्चे हिंदी माध्यम से पढ़ाई करें उनके लिए प्रश्नपत्र तोअंग्रेज़ी में ही आएंगे।

सो मात्र हिंदी का प्रश्नपत्र ही हम जैसों (हिंदी माध्यम से पढ़नेवालों) को हिंदी में नसीब होता था। बाकि समस्त विषयों मसलन अंग्रेज़ी (अब इसकी तो अंग्रेज़ी में ही आएगी !),इतिहास, भूगोल, जीव विज्ञान, भौतिक विज्ञान, गणित के प्रश्नपत्र बांग्ला, अंग्रेज़ी ,और नेपाली में तो आते थे पर हिंदी में नही। लोगों का कहना था की हिंदीभाषियों से बैर की वजह से ऐसा था। मैं नहीं मानती। मेरा तो कहना है ,वे निश्चित ही हिंदीभाषियों से बेइंतेहा प्रेम रखते थे तभी तो उन्हें मजबूर कर देते थे कि बच्चा ! नहीं सीखोगे शुरू से अंग्रेज़ी तो रहोगे नहीं कहीं के ! तो हम जैसे हिंदी माध्यम के बच्चे शुरू से ही अंग्रज़ी पर तनिक अधिक जोर दिया करते थे। (झूठ !बड़ी दीदी को पता था ,कितना जरुरी है अंग्रेज़ी का ज्ञान, तो डर के मारे ज़बरदस्ती देना पड़ता था ! ध्यान! और क्या !) स्कूल में भी छठी अथवा सातवीं कक्षा से ही प्रश्नपत्र अंग्रेजी में आने लगते ताकि दसवीं तक जाते -जाते बच्चों को आदत पड़ जाए अंग्रेजी में प्रश्न पढ़कर ,उसका हिंदी अर्थ समझकर उत्तर लिखने की। इतनी दूरदर्शिता मुझे आजतक किसी भी शिक्षा सम्बन्धी नीति में नजर नहीं आई। ऐसे ही किया जाता है बच्चों को भाषा में दक्ष !

आप समझ रहे हैं ना? गणित के नितांत कठिन सवाल भी हम अंग्रेज़ी में ही पढ़ते। बताओ ?दो ऐसे विषयों का अद्भुत समायोजन, जिन्होंने तथाकथित मिलेनियल्स की नाक में भी दम कर रखा है ,वह भी तब शिक्षा पद्धति में 2005 के बाद क्रांतिकारी परिवर्तन आये हैं, हम ‘एटीज़, नाईन्टीज किड्स’ किस खेत की मूली ठहरे, तब तो बालकेन्द्रित शिक्षा नहीं बल्कि छड़ी, थप्पड़ और कभी- कभी लात केंद्रित शिक्षा पद्धति का बोलबाला था। ऐसे में हम अपनी किताब में से मिश्र भिन्न, भिन्न, अंश और हर, भाजक- भाज्य ,परिमेय, ज्यामिति और त्रिकोणमिति इत्यादि के अंग्रेज़ी तर्जुमों को मक्खियों की भांति भिंन-भिंन कर रटते रहते। अभी गणित से पार नहीं पाए होते तब तक याद आता कि इतिहास नामक विषय भी तो है जिसमें हमारे हिंदी का सिकंदर अंग्रेज़ी में जाते ही अलेक्ज़ेंडर हो जाता है, पुरु पोरस और मकदूनिया मैसिडोनिया। इतना ही नहीं जिन्हे आज तक हम हूण कहते आये थे वे तो अंग्रेज़ी के हंस निकले !और भूगोल का क्या करें ?अक्षांश, देशांतर तो वहां और लैटीट्यूड लोंगिट्यूडहो जाते हैं (आज तक यह उलझन बनी हुई है कि लोंगिट्यूडे कौन है लैटीट्यूड कौन ?) अरे नहीं !अभी बौराइये नहीं !जीव विज्ञान और भौतिक विज्ञान तो बाकि है।वेंस, लंग्स ,हार्ट संबंधी शब्दावलियों को समझते, बुझते, रटते खुद ही हर्ट होते रहते। परिचितों के घर के अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अच्छे अंक हासिल कर हूगली पार के नामी गिरामी कॉलेज में दाखिला लेने का सपना देखते रहते और हम जैसे दीन -हीन हिंदी माध्यम वाले, भगवान् पास करा देना जैसी प्रार्थना ही करते रहते। कुछ भी हो जाए, नंबर कम आए, चलेगा, लेकिन साल खराब नहीं होना चाहिए।

सबसे बड़ा ख़ौफ़ इसी बात का रहता था कि कहीं ऐसा ना हो की आता हुआ प्रश्न भी इसलिए छूट जाए की हम उसका हिंदी तर्जुमा करके समझ नहीं पाए।हमारी बाड़ी में कल -कारखानों में काम करने वाले और जिन्हे आजकल वंचित तबके के लोग कहा जाता है, उन्ही का बसेरा अधिक था। उनके बच्चे (मैं भी) सरकारी स्कूल में पढ़ते थे और इस जद्दोजहद का सामना करते -करते या तो जंग जीत जाते थे ,या फिर हार कर वापस अपने गाँव -घर से पढाई की जंग जीतने का सपना लेकर लौट जाते थे।