स्लीपर से इंदौर वाया कटनी, वो याद अब भी ताजा है
खट-पड़ खट-पड़ खट-पड़ की आवाज आनी शुरू हो गई। ट्रेन ने रफ्तार पकड़ ली। एक अलग खुशी थी पर नई नवेली पत्नी को घर पर छोड़ कम से कम दो साल के लिए दूर रहने की चिंता भी दिल के कोने में दबी थी, जो रह-रहकर तकलीफ दे रही थी। स्लीपर क्लास में मैं पापा के साथ बैठा था। कभी दाहिने नजर घुमाता कभी बाएं। पापा सामने वाली लोअर सीट पर बैठे थे। सुबह का वक्त था तो ऐ चायवाला… चना जोर गरम की आवाज भी लगातार सुनाई दे रही थी। इलाहाबाद से इंदौर के लिए तब क्षिप्रा एक्सप्रेस डायरेक्ट ट्रेन हुआ करती थी। तड़के जंक्शन पर पहुंचने के लिए घर से 5 बजे ही निकल देना पड़ता था। इसके लिए पत्नी को 3 बजे ही उठकर खाना बनाना पड़ता था। नैनी के आगे ट्रेन तेज हो चली। खेत और ईंट के भट्ठे दोनों तरफ दिखते। बच्चे स्कूल जाते। साइकिल, पगडंडी और रेलवे फाटक के पास जमा उतावली भीड़।
पापा की आदत है वो अजनबी बनकर नहीं चलते। बगल में एक अंकल से चर्चा शुरू कर चुके थे। 5 मिनट में साफ हो गया कि अंकल के साथ बैठी उनकी बेटी भी यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए ही जा रही थी। पूछ बैठे- आपका बेटा है… बढ़िया यूनिवर्सिटी है। किसी अपने के बारे में बताने लगे जो वहां से पढ़कर अच्छी पोस्ट पर है। मिडिल क्लास आदमी ऐसे ही मन को संतोष देता है कि फलां ने पढ़ा था। अफसर बन गया या अच्छी जगह पहुंच गया तो कॉलेज अच्छा ही है। वैसे, इलाहाबाद जैसे शिक्षा के केंद्र से इंदौर जाना थोड़ा अटपटा तो लग रहा था लेकिन कोर्स और एडमिशन भी मायने रखता है। वैसे भी हम ‘कभी खुशी कभी गम’ देख चुके थे। उसमें वो डायलॉग है न। तुम्हारे दादा एमबीए करने लंदन गए थे, बड़े भैया गए थे तो तुम भी जाओगे… मैं भी उस रोज एमबीए में एडमिशन कराने ही लंदन न सही एक अनजाने शहर निकल पड़ा था।
सामने वाली सीट पर लड़की और उसके पिता जी थे। मेरी थोड़ी बात हुई तो पता चला कि उसका भी यूनिवर्सिटी के उसी कैंपस में काउंसलिंग है। तब देवी अहिल्या विश्वविद्यालय का नाम बहुत ज्यादा नहीं सुना था। उसी ने बताया कि वहां कई ट्रेड होंगे और रैंकिंग के हिसाब से एडमिशन होगा। शायद ऑफर लेटर से ब्रांच के बारे में मुझे भी पता था लेकिन ऐन वक्त पर किस क्षेत्र में एमबीए का मौका मिलेगा, कन्फर्म नहीं था। ट्रेन सतना के आगे कटनी के रास्ते पर थी। दोपहर का खाना खा लिया गया। तब तक सामने वाले अंकल कई चाय सुड़के।
पढ़ाई के लिए एडमिशन कराने जा रहा था लेकिन खुशी चेहरे पर नहीं थी। शायद इसीलिए लोग नौकरी से पहले शादी से मना करते हैं लेकिन अपनी तो हो गई थी। अब शादी के बाद पढ़ाई करनी थी, नौकरी तो दूर की कौड़ी थी। इससे मन जरा मायूस था। साइड लोअर वाली सीट पर एक आंटी थी। 4-5 बजे का वक्त, उन्होंने अपना बैग खोला तो मैं हैरान रह गया। ओह तेरी इतना इंतजाम। बड़ा सा बैग, थाली-प्याज, चाकू निकालकर वह लाई का गट्ठर, जिसे कुछ लोग मुरमुरा कहते हैं, निकालीं। बड़ा सा परिवार था। वे लोग प्रतापगढ़ के रहने वाले थे। पूरा परिवार इंदौर में बस गया। यहां अब एक भाई और माता-पिता रहते थे। घर में शादी का कार्यक्रम था। बिताकर लौटे थे। परतापगढ़िया हैं, ये वो बातों से परिलक्षित कर रहे थे। का राजू, बचई, जौन बाटई… जैसे अल्फाज वहीं ज्यादा बोले जाते हैं। उनके शोर-शराबे से पूरी बात अपने आप पता चल गई। उनके पति परमेश्वर फोन पर किसी से बात करते तो लगता झगड़ा कर रहे हैं। अब कौन कहे, ऐसे लोगों से कि अंकल फोन है, चिल्लाने की जरूरत नहीं है।
आंटी के प्याज काटने की स्टाइल, मुरमुरा में नमक मिलाया, ऊपर से नमकीन का आवरण चढ़ाया। फिर बिना पूछे सामने हम लोगों से कहने लगीं। आप लोग भी लीजिए। ये इंदौर की फेमस नमकीन है। वहां न सैकड़ों टाइप की नमकीन मिलती है। सब्जी हो या चाय बिना नमकीन हमारा नहीं चलता। तब मैंने सेव-टमाटर की सब्जी नहीं खाई थी। आंटी के मुंह से सब्जी की बात सुनकर हैरानी हुई। ना ना आप खाइए, सभी बोल पड़े।
सूर्यास्त होने लगा तो एक अलग निराशा होने लगी। लेकिन स्लीपर क्लास में यही अच्छा होता है कि चहल-पहल में आपका मन बहल जाता है। ट्रेन जंगल- पठार के बीच से दौड़ी जा रही थी। इंदौर में केवल एक शख्स था जो हमारे परिचित थे। मेरे मामा लगते थे। हां, सगे मामा के पड़ोसी। उनके पिता जी वहीं नौकरी किए और पुलिस विभाग से रिटायर हुए थे। अपना घर था और मामा से बात हुई थी कि हम ट्रेन से आ रहे हैं। वो प्लेटफॉर्म पर रिसीव करने आने वाले थे।
रात का खाना हो गया और पिताजी का गला बोलने लगा। मुझे नींद नहीं आ रही थी। तब 1100 वाला नोकिया का फोन मेरे पास हुआ करता था। वाइफ से बात हुई। उन्होंने जानबूझकर हंसमुख तरीके से बात की जिससे मेरा आत्मविश्वास कमजोर न हो और पढ़ाई में कोई बाधा न आए। खैर, आधी रात के बाद एक बार टाइम देखा तो किसी ने कहा कि अभी तो उज्जैन पहुंचने में एक घंटे कम से कम लगेंगे। उसके बाद इंदौर आएगा। कटनी के आगे दमोह, सागर, विदिशा के बाद गाड़ी भोपाल से आगे थी।
पिताजी बोले चलो अब सोएंगे नहीं। मामा जी का भी दो बार फोन आ गया था। वो बोले गाड़ी लेकर आऊंगा। प्लेटफॉर्म आने से पहले ट्रेन स्लो होती है तो एक अलग तरह की आवाज सुनाई देती है। वह घर्षण की आवाज बता देती है कि कोई जंक्शन या प्लेटफॉर्म आने वाला है। स्लीपर वालों को भी जल्दी ज्यादा होती है। सब लाइन में बैग लेकर लग गए थे। पिताजी बोले एकदम आराम से चलेंगे। कोई जल्दी नहीं। ट्रेन यही रुकेगी न। कोई बात नहीं। सबसे बाद में हम लोग निकले और मामा जी की आवाज कानों में गूंजी। जीजा, जीजा इधर… और वो आ ही गए। पिताजी के पैर छुए, मैं मामा के पैर की तरफ झुका तो अरे नहीं भयने… कहकर उन्होंने हाथ पकड़ लिया।
उनका घर लंबे में थे मतलब एक बड़ा कमरा आगे जो सड़क पर सीधे खुलता था। उसके पीछे एक कमरा, उसके पीछे खुला आंगन। आंगन के एक छोर पर किचन और दूसरी तरफ टॉयलट था। हमलोग जाते ही सो गए। चाय जरूर गिलास भरकर पिया। सुबह 9 बजे तक सोते रहे। नींद खुली। मामा ने पूछा कि रींकू आज तो नहीं जाना है। मैंने कहा कि नहीं मामा कल काउंसलिंग है। दूसरा दिन आया और मैं-पिताजी ऑटो से यूनिवर्सिटी पहुंच गए।
भंवरकुआं चौराहे के पास खंडवा कैंपस था। यूनिवर्सिटी में प्रवेश करते समय दो पिलर दिखे। वहां से ऑटो वाला दाहिने लेकर आईआईपीएस डिपार्टमेंट लेकर गया। वहां काफी भीड़ थी। माइक से अनाउंसमेंट हो रहा था। बच्चों से ज्यादा तो गार्जियन दिखाई दे रहे थे। जैसे रेलवे के आगमन और प्रस्थान की टाइमिंग शो होती है वैसे ही मार्केटिंग, फाइनेंस, मीडिया, एचआर और ऐसे 15 ट्रेड में एडमिशन की प्रक्रिया चल रही थी। सबसे टॉप पर वहां मार्केटिंग, फाइनेंस था। कुछ बच्चे पहले से तय कर आए थे कि यही लेना है।
मेरा नंबर आया तो ई-कॉमर्स, मार्केटिंग जैसे ट्रेड ऑफर किए गए। मीडिया मैनेजमेंट में भी एमबीए का ऑफर हुआ। वहां सीट लॉक करनी होती और कुछ समय मिलता आप सोचकर उतनी देर में एक बुक करिए। मैंने वहीं से कुछ दोस्तों से बात की। जिसको बताता सभी स्ट्रीम के नाम, वे कहते अरे मीडिया ले लो। आपकी आवाज अच्छी है। मैं कहता भाई ऐंकर बनने नहीं आया हूं। एमबीए की पढ़ाई है। फिर भी वो बोलते कि मीडिया ही लो। एक दो पत्रकार मित्र, रिश्तेदार परिचित थे। उन्होंने भी यही राय दी और हम मीडिया मैनेजमेंट बुक करा आए। लौटते समय ईएमआरसी भी देखने गए। जहां अगले दिन आकर एडमिशन की बाकी प्रक्रिया पूरी करनी थी।
ललित इंगले सर तब वहां हुआ करते थे। कोरोना ने उन्हें छीन लिया। अच्छे से समझाया कि यह स्ट्रीम क्या है और कैसे पढ़ाई होगी। प्रभाकर सिंह डायरेक्टर हुआ करते थे। रहने वाले बलिया के और बनारस में पढ़े थे। बाद में क्लास में वह मुझ पर ही उदाहरण बनाकर पेश करने लगे थे।
दूसरे दिन एडमिशन हुआ और हम बाहर निकले तो सामने बस पकड़ने के लिए खड़े हुए। देखा कि यहां हर कोई पोहा बहुत खाता है। खाते हम लोग भी थे लेकिन यूपी में इतना नहीं खाते हैं। मेरा पारिवारिक कनेक्शन नागपुर से है तो हम लोग पोहा, उपमा पहले से खाते थे। पिताजी और मैंने भी अखबार के फटे टुकड़े पर पोहा ले लिया। वहां पोहा-जलेबी बेहतरीन नाश्ता है। वहां का चूरन और ऊपर से नींबू निचोड़ने का अंदाज काफी पसंद आया। तब वहां लो फ्लोर बसें नहीं चलती थीं लेकिन लोग रूल फॉलो करते थे। साफ-सुथरा इंदौर खाने के लिहाज से भी काफी रिच है। वहां लिट्टी-चोखा, बंगाली रसगुल्ला, मराठी चिवड़ा, गुजराती फाफड़ा और ऐसे ही हर डिश खाने को मिल जाती। मिक्स कल्चर है इंदौर का। पिताजी के साथ मैं भी दो दिन बाद लौट आया। फिर एक हफ्ते बाद सामान लेकर इंदौर पढ़ने गया।
वहां का मौसम काफी पसंद आया। दोपहर में गर्मी होती और 3 बजे के बाद बारिश की फुहारें माहौल चंगा कर देतीं। दोस्त भी अच्छे मिले। आईआईपीएस के पीछे ही जेएनबीएच हॉस्टल मिल गया। मामा के यहां शुरुआती एक महीने लगातार रहा। मामाजी खुद खाना बनाकर देते। मामी तब गांव में ही रहती थीं। गांवों की अपनी परंपरा है। शादी के बाद भी पति के साथ पत्नी नहीं रह पाती। दो साल हॉस्टल में बीता। शानदार, जबर्दस्त, जिंदाबाद। पास में उज्जैन, ओंकारेश्वर और ऐसी कई जगहें घूमने की हैं जहां आपका बार-बार जाने को दिल करेगा। मौका मिले तो जाइएगा जरूर इंदौर पसंद आएगा और हां वहां राजवाड़ा की रंगत और 56 के पकवान जरूर ट्राई कीजिएगा।
(ए.मिश्रा )
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